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Saturday 31 March 2012

नमन

(भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, पाश की स्मृति मे)
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हर बरस बदलते दिवसों से आते तुम
आते-जाते दिवसों से फिर हो जाते गुम
बरस मे जितने दिन ना समाते
उतने दिवस अब हमने बनाये
ऎसा कोइ दिन न बचा अब
जिस दिन कोइ दिवस ना आये
दिवस युग्म भी बनते जाते
दिवसों मे बस एक दिखावे सा ही ध्येय बनाते
औपचारिकता की परिपाटी में बस एक प्रमेय सजातें
मेला भी लगता कहीं-कहीं
चढती मालायें गहीं-गहीं
दिखता नमन लेखो में भी
गुंथी जाती महज कथाएं
भाषणॊं ;
गीतों;
श्रद्धा की अंजुरियों से बस कहीं-कहीं ही होती चर्चाएं
त्याग वीरता बलिदानों से उपजीं
भारत माता अपनी भोली-भाली
लगती मुझको अब काली-काली
भ्रष्ट देसी अंग्रेजों के
चेहरों पर बहती रहती गंदी नाली
जिसमे पडें पलते कीडें पूछों वाली
जो लगते महज बस एक गाली
कहाँ गयें अंगरेज अभी तक
अजगर गिद्ध सर्प बने फ़िरते है
सफ़ेद रंगों के रंगरेज अभी तक
गंदा सडा नाली का पानी सर के उपर जब चढता है
तब जाकर बनता खबर हर कोइ जिसे देखता पढता है
घोटालों हवालों से लुटते जाते
गणतंत्र के अधिकार बताते
लडते- लडाते गठबंधन से
लूटने की सरकार चलाते
खून गरीबों का बेच यह स्वर्ण बनवातें
स्विस बैंक मे छुपे-छुपाते जमा करवाते
देश रतन अब बनते खिलाडी
नोटों पर केवल गांधी बाबा ही छपते
कितने बर्षो के बाद अब महज तुम सिक्को पर
छापने की एक सोच बने टकसालो मे आतें
नमन तुम्हे अब करने मे पाखंड
मुझे अब लगता है
सब देख- सुन कर चुप रहना
शायद यह मेरा भी एक मौन समर्थन ही होगा
कैसे कोइ शब्द करूं मै अंकन
कैसे नमन करूं अब तुमकों
तुम ही बतलाओं ?
लज्जा से दुखता सर अब झुकता
झुकता झुकता सा जाता है ।

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