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Friday 13 April 2012

नश्तर ।


उडतें जाते  भागते फ़डफ़डातें सालों से परिन्दें
तेज आँधी सी हवाओं के उठते बगूलों से सनसनातें शोर में
कैलेन्डर के पलटतें पन्नों की तरह
सिहरता जाता  है कोइ अकेला
देखता नीला आसमान
फ़िसलती जाती जिन्दगी के मायने भी
हाथों सें
हसीन रेशमी ओंढनी के डोर की तरह
थमती हवाओं के बाद का सन्नाटा 
जीने का अर्थ कितना मँहगा हो गया अब
अंधेरी रात का विलाविलाता अंधेरा कितना गहराता सा जा रहा
है खडा भौंकता अन्धा आवारा कुत्ता कोइ बेसुरा
सडती कब्र के  सायें के साथ होनें का एक अहसास दिला जाता है 
रात के कहर में मेरे साथ 
वह भी खोजता है भूख की जिन्दगी के मँहगे अर्थ का अर्थ
सन्नाटों को डराता गुर्राता फिर पसर जाता
झींगुरों की झंकारों की पसरती आवाजों की तरह
रात से चिंगुरतें अंतिम पहर का प्रहरी तारा भी छुप जाता है
चाँदनी सी सफ़ेद बादलों के ओंट में
आवारा मरियल कुत्तें की गुर्गुराहट चिहुक उठती घूरें की धूर पर बेजान 
मंदिरों की घंटियों की आवाजों , अजानों के साथ 
थकी माँदी बासी मुँहलटकायें
फिर आ जाती है वही सुबह हर रोंज की तरह
पेट मे चुभोनें दिन भर के लिये
फिर वही नश्तर 
फिर वही नश्तर ।
---------------------------शिव शम्भु शर्मा ।

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