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ओ पर्यटक !
आ गये तुम तस्वीर खीचने
आओं देखो
उम्मीद के बिना भी कई पेड खडॆ है
औधे भी पडे है तो क्या ?
वैसे ही झुमते रहते हैं
झुम जाते हो जैसे तुम
अपनी अतिरंजना से
आँखों में हरियाली की उम्मीदें पाले
पर वह
तुम्हारे देखने से बेपरवाह
बरसाती नदी की तलहटी में पडे
उस बडे चट्टान की तरह ही है
अपरदन और दरारों से बेखबर
जो उसकी अपनी नदी ने ही दिया है
आत्मज्ञानी नही है वह तुम्हारी तरह
उसे संसार नही चाहिये
मोक्ष भी नही चाहिये
वह तो तुम्हे चाहिये ?
कितनी चाहतो से भरे हो तुम
कुहरे के पार का भी स्वर्ग तुम्हे ही चाहिये
जिसे किसी ने नही देखा
कुछ पाखंडियों और
तुम्हारे सिवा ।
---------------शिव शम्भु शर्मा ।
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