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Friday 21 December 2012

टिन के कनस्तर

गर्म लाल टिन के कनस्तर हैं -हम
पलक झपकतें ही फ़िर लौट आते है -हम
अपनी पहली रंगत पर

अच्छी समझ है हमारी
अपने और बेगानों की संगत पर

हम फ़िर बांचने लगते हैं अखबार
टीवी* पर देखने लगते है नया समाचार
सोचते है---- हम नही 
इसके लिये तो जिम्मेवार है सरकार

यूं फ़िर चलता रहता है
बलात्कार दर बलात्कार
वही चीखें वही आर्त-- चित्कार

अफ़सोस हम जुडकर तवें नही बन पाते
के जिससे बन पाये कुछ अदद रोटियां

तब भी जब
पाशविकता भी करती हदें पार
सरेआम लुटती हैं अस्मतें
मसली जाती है कलियां

मौत से गर बच भी जाए तो क्या ?
मुसर्रत से जी सकेंगी कभी ये
विक्षिप्त बेवश मजलूम
हमारी ही बहन व बेटियां ?

वासना सर्प बना फ़ुफ़कारता है
डसता है और
मजे लेकर चला जाता है
ढूढंने फ़िर से कोई नया शिकार

शहरी घरों मे बची है अब पार्टियां
याद आ रही है गांव की वह लाठियां ?
जो
केवल सर्प की शिनाख्त होते ही
टूटती है आज भी
अफ़सोस व इंतजार के सिवा अब
किस काम की है ऎसी चौपाटियां ॥
--------श्श

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