(मित्र मिथिलेश जैन से अभिप्रेरित )
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हम समझते कि हम चलते है
सडक पर
चलते चलते
हम यह भूल जाते है
सडके भी चला करती है
और
हम जहां थे वही के वही
खडे रह जाते है
एक पेड की मानिन्द
हमारे हाथ मे कुछ नही बचता
और रह जाते है बस
टुकुर टुकुर
ताकते ।
----------शिव शम्भु शर्मा ।
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