केचुए पर एक कथिका लिखना पडा
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केचुए हैं हम
तर मिट्टी में मुँह छिपायें
बारीश के तेज कटाव पर
बहते है
तर बतर
सरकतें है जमीन पर
दर बदर
कभी हमारी भी थी रीढ
हमारे पुरखें ऋषि दधीचि के गोतियें थे
दान मे दे दी थी उन्होनें
सपोलों को
सपोलें उसी रीढ से
सांप बने
अब वही सरसरातें है
और हम
सरकते है
उचक उचक कर
चींटियाँ हमें चाट जाती हैं
एक ढेंर सारी खंभों वाली इमारत की
मुंडेर पर चढे
चुनें मे पुतें कौवे
मुस्कुराते हैं
हमें देख कर
और हम गड जाते है
मिट्टी में दुबारा
बारीश के नही आने की दुआ करतें ।
---------------------शिव शम्भु शर्मा ॥
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