चाहता बस इतना ही
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उन्मुक्त रहुं परिन्दों की तरह
कभी इस डाल तो कभी उस डाल
कभी यहां तो कभी वहां
उडता रहुं जैसे उडते धूल कण
पवन में
खिडकी से आइ
लकीर सी धूप में जो
देता है दिखाइ
चाहता नही बंधना किसी बंधन में
चाहे वह प्रेम हो या फ़िर हो रूसवाइ
विचरता रहुं असीम गगन में या
यायावर सा घूमता रहुं निर्जन वन में
या रहुं खडा किसी समुद्र तट पर
लहरों से खेलता रहुं सदा
पडा रहुं किसी चट्टान की तरह
होता रहुं मुलायम हर दिन
खाता रहुं थपेडें अन गिन
जाना पडे कभी अगर तो रोऊ नही
चाहता बस इतना ही
हंसते -हंसते हो मेरी विदाइ
-------------श्श्श।
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