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Thursday 21 March 2013

प्रत्याशा




मैं  खडा हूं एक स्टेशन पर
पढ रहा हूँ चस्पाए वाल पर
एक चित्र युक्त कविता

कवि के शब्दों में शब्दचित्र है
छुपे बिम्ब  उभरते है मानसपटल पर
कुछ इस कदर कि
किसी और दुसरे चित्र की वहाँ
कोई जरूरत ही नही है शायद

फ़िर भी कवि चित्र लगता है
अंदेशा तो देखिये कितनी होती है आशा
और कितना छुपा होता है  डर
कितना प्यार कितनी प्रत्याशा

कि कोई निर्गुणधर्मी पटल छुट न जाए
कहीं बिम्ब बिना समझे ही रह न जाए
और कही उलझ न जाए उसकी कविता
अपने कथ्य की अन्तर्वस्तु से

सही सलामत पहुंच जाय  अपने मन्तव्य को
जबकि सही में ऎसा कुछ नही हो पाता
जितना कि होना चाहिये था

लोग मशरूफ़ है अपने अपने काम में और
चल पडती है ट्रेन अपने गंतव्य को
धडधडाती चलती रूकती हुई

इस बात से बेखबर
कि  मुसाफ़िर सोए है चादर तानें
फ़ुफ़ काटते
बिन्दास।
-------------------शिव शम्भु शर्मा ।




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