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Monday 25 March 2013

रंग अलग अलग



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दलित टोले की होली अलग
वे पीटते रहते है अपना ढोल  झांझ मंजिरा अलग
उनका फ़गुआ अलग
रंग राग अलग

गरेड टोले कोइरी टोले यादव टोले
और ऎसे ही कुछ और भी टोले की होली भी अलग
फ़ाग अलग
राग अलग

सवर्ण और वैश्य टोले की होली एकदम अलग
इनके टोले में गाने बजाने आशिर्वाद लेने की पुरानी परंपरा
का बोझ अपने-अपने सिर पर लादे
सभी टोले को उनके टोले में जाना अनिवार्य है
वे अछूतो पिछडों के टोले मे नही आते कभी

ये टोले एक दरबार में मिलते तो है पर कभी नही मिलते
नही कहा जा सकता इस दासता को मिलना
नही कही जा सकती इसे होली
और न मिलन

सवर्ण टोले का कोई सिरफ़िरा भी दुनियाँ से गुजर जाए तो
शोक में डुब जाता है पुरा गाँव
पुरे गाँव की होली पर रोक

और दुसरे टोले का कोई सम्मानित भी गुजर जाए तो कोई
फ़रक नही पडता सिवा उस घर के और उसके गोतियां के घर के

आज भी गांव जवार की होली का रंग ऎसा ही है
यह पुराना रिवाज कही कुछ हल्का सा बदला तो है
मगर इसे बदलाव नही कहा जा सकता
और न होली

मैं होली में कभी भूलकर भी गाँव नही जाता
मुझे शहर की होली ही अच्छी लगती है

अच्छा लगता है यह  रंग अबीर गुलाल
जो एक दुसरे में
परस्पर मिल जाते है
भेदभाव  नही रहते

और नही भी मिले तब भी
किसी जातिगत सामंती बाध्यता की अपेक्षा तो कम से कम नही रखते

होली मुबारक हो आप सभी को ।
-------शिव शम्भु शर्मा ।

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