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वसुधा पर कोई अजनबी नही है
सभी की एक पहचान है
सब के सब हमारें कुटुम्ब है
वसुधा के मानव प्राणी मात्र ही नही हैं
सब हमारे ही भाई -बहन हैं
तभी तो कहा जाता रहा है -- वसुधैव कु्टुम्बकम
इन्ही कुटु्म्बों में से दो कुटुम्बों ने
दखल कर रखा है हमारे बडे -बडे भू खण्ड
और लील रहे है बेकसूरों को
बोकर बारूदों का जहर
ढा रहे है कहर
ये अजनबी तो नही है मगर
अजनबियों से भी गये गुजरे हैं
इन्हे हम क्या कहे ?
और क्या कहे तमाशबीन बनें स्वयं को भी ?
यही नही
न जाने कैसे ये वसुधा के कुटुम्ब ही रचाते है
आपस मे शादियां
भाई-बहन का रिश्ता भूलकर
यह वसुधैव कुटुम्बकम कही हाथी का बाहरी दांत तो नही है ?
जो केवल हमारे ही पास है
कही हम ही एक महान तो नही है पुरी वसुधा में ?
या सच कुछ और है ?
जो शायद कही गुम हो गया है
अजनबी की किसी परिभाषा में ?
या किसी कौटुम्बिक रिश्ते की
कायर कातर आशा में ?
--------------शिव शम्भु शर्मा ।
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