यूं तो कविता की न कोई सीमा है
और न कोई बंधा हुआ दायरा
यह कवि कविता की निजी धारणा है बस
सच में ऎसा नही है
कविता की भी एक सीमा है
इस सीमा से बाहर असंख्य लोग है
एक सुनबहरा देश है
गरीब गुरबा
बैसाखियों के सहारे लंगडाकर चलते
आम जन लोग
और निम्न लोग
दबें कुचलें कुम्लायें
मैले फ़टॆहाल मलीन
और इनसे उलट
अपने सुखो मे तल्लीन
अपनी ही साधना मे लीन
जिन तक
कविता नही पहुंचती है ।
----------------------------शिव शम्भु शर्मा ।
No comments:
Post a Comment