गेहुं कटने के बाद का खेत
और पुरा का पुरा सरेह
डरावना सा लगने लगता है
सुनसान सा सिवान
तब कितना खुरदरा दीखता है
गांव से थोडी ही दूर
उदास से इन्ही खेतों में
लगते है तब शामियानें
आकर टिकती है दूर से कोई बारात
गाजे बाजे के रस्मों रिवाजों के साथ
और विदा कराकर ले जाती है अपने साथ
अपनी सभ्यता का विस्तार
तब खुरदरा खेत और निचाट सा हो जाता है
देखा नही जाता इसे भी उन आसुओं की धार
हो जाता है यह भी तार तार
कोई नही देख पाता इसे
फ़ट जाता है यह भी उतने ही दुख से
और करता है फ़िर वही इंतजार हर साल की तरह
आषाढ की उन चहल कदमियों का
जिसमे बोये जाते है फ़िर से नये बीज
एक बार फ़िर से कटने के लिये
ऎसा होता रहता है बार बार
जिस पर खेतों का कोई अपना वश नही होता
गांव की बेटियों की तरह ।
----------------शिव शम्भु शर्मा ।
No comments:
Post a Comment