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Friday 26 April 2013

शामियानें


गेहुं कटने के बाद का खेत
और पुरा का पुरा सरेह
डरावना सा लगने लगता है
सुनसान सा सिवान
तब कितना खुरदरा दीखता है

गांव से थोडी ही दूर
उदास से इन्ही खेतों में
लगते है तब  शामियानें
आकर टिकती है दूर से कोई बारात
गाजे बाजे के रस्मों रिवाजों के साथ

और विदा कराकर ले जाती है अपने साथ
अपनी सभ्यता का विस्तार

तब खुरदरा खेत और निचाट सा हो जाता है
देखा नही जाता इसे भी उन आसुओं की धार
हो जाता है यह भी तार तार

कोई नही देख पाता इसे
फ़ट जाता है यह भी उतने ही दुख से

और करता है फ़िर वही इंतजार हर साल की तरह
आषाढ की उन  चहल कदमियों  का
जिसमे  बोये जाते है फ़िर से नये बीज
एक बार फ़िर से कटने के लिये

ऎसा होता रहता है बार बार
जिस पर खेतों  का कोई अपना वश नही होता
गांव की बेटियों की तरह ।
----------------शिव शम्भु शर्मा ।

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