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Thursday 4 April 2013

सच


सच बडा घिनौना है वीभत्स है

धुली हुई सफ़ेद चादर मे लिपटे
देहपिंड में रंग बिरंगे फ़ूलों का आवरण

घी चंदन के तेल का प्रलेपन
लोहबान जलती अगरबत्तियां

मालाओं की ढेर सी श्रद्धांजलियां
भी महका नही पाती तब  भीतर तक मुझको

जैसे सडती हुई लाश के नथुनों में ढुंसा होता है
रूई के फ़ाहें में लिपटा महकता मजमुआं का सेंट

जल रही चिता से उठती एक चिराईन सी गमक
से जब तिलमिला रहा होता हूं

उबकाई सी आने लगती  है तभी
फ़टता है सर एक बडी आवाज के साथ
पृथ्वी के प्रस्फ़ुटन की याद दिलाता

और विलीन हो जाता है भाप बनकर हवाओं में
राख बन कर फ़िजाओं में
कभी नही लौटने के लिये

या फ़िर छिप जाता है सच
किसी कब्र के नीचे किसी सड चुकी लाश के उपर मानो
संसार का सबसे सुन्दर संगेमरमर का मकबरा हो जैसे
---------------------------शिव शम्भु शर्मा ।




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