सच बडा घिनौना है वीभत्स है
धुली हुई सफ़ेद चादर मे लिपटे
देहपिंड में रंग बिरंगे फ़ूलों का आवरण
घी चंदन के तेल का प्रलेपन
लोहबान जलती अगरबत्तियां
मालाओं की ढेर सी श्रद्धांजलियां
भी महका नही पाती तब भीतर तक मुझको
जैसे सडती हुई लाश के नथुनों में ढुंसा होता है
रूई के फ़ाहें में लिपटा महकता मजमुआं का सेंट
जल रही चिता से उठती एक चिराईन सी गमक
से जब तिलमिला रहा होता हूं
उबकाई सी आने लगती है तभी
फ़टता है सर एक बडी आवाज के साथ
पृथ्वी के प्रस्फ़ुटन की याद दिलाता
और विलीन हो जाता है भाप बनकर हवाओं में
राख बन कर फ़िजाओं में
कभी नही लौटने के लिये
या फ़िर छिप जाता है सच
किसी कब्र के नीचे किसी सड चुकी लाश के उपर मानो
संसार का सबसे सुन्दर संगेमरमर का मकबरा हो जैसे
---------------------------शिव शम्भु शर्मा ।
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