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Saturday 11 May 2013

स्वयं से ही ।


स्वयं से ही
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तुम निरंतर प्रेम प्रेम चिचियाते रहते हो
मै क्या करूं ? तुम्हारे इस अंधे प्रेम का

कभी चिडियां नदी पर्वत तो कभी फ़ूल तितली
और न जाने  क्या-क्या बनकर बनाकर
उलझे उलझाये  रहते हो

तुम क्या जानो इन बेशर्मो धूर्तो
मक्कारों जाहिलो कमीनों को

कठकरेजो और नौटंकीबाजों को
जो रहते है तुम्हारे ही गाँव में
तुम्हारें अपने बनकर
तुम्हें लुआठने

और तुम दूर  पलक पांवडॆ बिछाये रहते हो उनकी याद में
लिखते रहते हो कोइ कविता कहानी
झेलते रहते हो अपने हृदय के बिछोह की पीडा

और निकाल लेते हो इन्हे अपने सभ्य
साफ़ सुथरे प्रेममय शब्दों की चासनी में  डुबाकर
रख देते हो सफ़ेद  कागज पर
कर देते हो इस तरह सच्चाई का खून
मै क्या करूं ? तुम्हारे इस संगीन अपराध का

छपवा देते हो कोई किताब
परोस देते हो गन्दी गालियों को छुपाकर
उत्कृष्ट साहित्य के स्टाम्प में संजोकर
बेच देते हो  बाजार में लीप -पोतकर

जैसे बेच देता है कोई चालाक हलवाई अपनी बासी सडी मिठाइयों  को
केवडे गुलाबजल कें तीखे सेंट में डुबाकर
चाँदी की चमकदार  वर्क चढवाकर
खूबसूरत रंगीन डब्बे में तौलाकर

क्या करूं तुम्हारे इस अंधे प्रेम का
जो सच व्यक्त करना नही जानता
या  नही चाहता  
हतप्रभ हूं स्वयं से ही ।
 --------------------------शिव शम्भु शर्मा ।

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