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चापलुसों से भरा पडा है
हिन्दी साहित्य
सोचता हूँ इतना बुरा हाल क्यो है ?
कोई किताब ऎसी क्यो नही मिलती
जिसके पहले या आखिरी पन्ने पर
चापलुसी पसरी न हो ?
कितना विवश है साहित्य का यह जीव
बहुत बुरा लगता है मुझे ऎसी चापलुसी से
इस घिनौनी लाग लपेट की
लोलुपता भरी सिफ़ारिश से
उस बौनी समझ से जिससे पाठको को उकसाया जाता है
वह भी महज एक किताब खरीदने के लिये
क्या सचमुच बिना सिफ़ारिश के इस देश मे कुछ किया नही जा सकता ?
अगर ऎसा है तो लानत है
इस विधा को ।
-----------------शिव शम्भु शर्मा ।
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