उलझनों ने कहा मुझसे
मत उलझा करो किसी से
गाहें बगाहें उलझते फ़िरते रहते हो अक्सर
तुम्हें पता है ये उलझनों की जडे क्या है
क्यो है कहाँ से शुरु होती है कहाँ तक फ़ैली है ?
और कैसे पनपती रहती है ये
जमीन के अंदर और बाहर
कहाँ- कहाँ तक फ़ैली है इसकी शिराए-धमनियाँ जटा- जुट
और आपस में उलझी रहती है बेतरतीब किस कदर
सुलझा पाओगे अकेले इतने बडे जंगल की इतनी सारी उलझनें
तब मेरी सुनो
एक वृक्ष की तरह जियों चुपचाप
और करते रहो वह सब
जो एक वृक्ष करता रहता है ।
-------------------श श श ।
मत उलझा करो किसी से
गाहें बगाहें उलझते फ़िरते रहते हो अक्सर
तुम्हें पता है ये उलझनों की जडे क्या है
क्यो है कहाँ से शुरु होती है कहाँ तक फ़ैली है ?
और कैसे पनपती रहती है ये
जमीन के अंदर और बाहर
कहाँ- कहाँ तक फ़ैली है इसकी शिराए-धमनियाँ जटा- जुट
और आपस में उलझी रहती है बेतरतीब किस कदर
सुलझा पाओगे अकेले इतने बडे जंगल की इतनी सारी उलझनें
तब मेरी सुनो
एक वृक्ष की तरह जियों चुपचाप
और करते रहो वह सब
जो एक वृक्ष करता रहता है ।
-------------------श श श ।
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