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Saturday 31 March 2012

दरख्त


मरना तो सबको है 
अब तक रहा है कौन ? 
कि हम रहेगे ?
मरने जीने की जद्दोजहद मे भी 
कहीं न कहीं 
साबूत सा बचा होता हैं 
एक मौन 
यह बचा मौन ही होता हैं 
शब्दो में छिपा कहीं 
बीजों मे छिपे दरख्त की तरह
यही बचकर कहता है  
हम बचे रहेगें 
--------------- शिव शम्भु शर्मा

भूसा


मैने माना तुम
फ़ार्म हाउस खरीद सकते हो 
तुम गेंहु उगवा सकते हो
रैलियां बुलवा कर भेडों सी भीड को बहला कर
नारें लगवा सकते हो
भाषणों मे कविता शेर के
जुमले फ़िकरे पढकर फ़ुसला सकते हो
तुम
गठबंधन की सरकार बना सकते हो
कानून बनवा सकते हो
रियायतें भी थोडी दिलवा सकते हो पर
ओ अमूल के बटर
जान लडाकर भी
तुम स्वयं गेंहु नही उगा सकते जिसे
केवल मैं उगा सकता हूं
थ्रेसर के उडते भूसों के गर्दो मे 
जहाँ 
कुछ ही पलों मे
सांसें तुम्हारी उखड जायेगी 
पानी से निकली मछली की तरह 
पर मै
वहाँ भी लडकर
लगातार खडा रह सकता हूं
फिर
अलग कर सकता हूं 
गेंहु को भूसों से 
जो तुम्हारे वश की बात नही है
मै भूसा होकर भी सांस ले सकता हूं
भूसा हूं सही पर 
दाता हूं तुम्हारा
यह मत भूलना 
देता हूं तुम्हें गेंहू 
ले लो फिर इसे बारीशों में फिर सडवा देना
भूखमरी पर हिट फ़िल्म बनवा लेना
अपनी मेम का और कुत्ते का ख्याल रखना केवल जो साथ देगी
तुम्हारें मुर्दा घाट जाने तक
ध्यान रखना केवल उसका जो सगा अपना हो
उसका कभी नही
जो तुम्हारे बंगले चमचमाती कार और चेहरे पर 
खिले खुशियों से दमकते गुलाब की लाली का
सार है

नमन

(भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, पाश की स्मृति मे)
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हर बरस बदलते दिवसों से आते तुम
आते-जाते दिवसों से फिर हो जाते गुम
बरस मे जितने दिन ना समाते
उतने दिवस अब हमने बनाये
ऎसा कोइ दिन न बचा अब
जिस दिन कोइ दिवस ना आये
दिवस युग्म भी बनते जाते
दिवसों मे बस एक दिखावे सा ही ध्येय बनाते
औपचारिकता की परिपाटी में बस एक प्रमेय सजातें
मेला भी लगता कहीं-कहीं
चढती मालायें गहीं-गहीं
दिखता नमन लेखो में भी
गुंथी जाती महज कथाएं
भाषणॊं ;
गीतों;
श्रद्धा की अंजुरियों से बस कहीं-कहीं ही होती चर्चाएं
त्याग वीरता बलिदानों से उपजीं
भारत माता अपनी भोली-भाली
लगती मुझको अब काली-काली
भ्रष्ट देसी अंग्रेजों के
चेहरों पर बहती रहती गंदी नाली
जिसमे पडें पलते कीडें पूछों वाली
जो लगते महज बस एक गाली
कहाँ गयें अंगरेज अभी तक
अजगर गिद्ध सर्प बने फ़िरते है
सफ़ेद रंगों के रंगरेज अभी तक
गंदा सडा नाली का पानी सर के उपर जब चढता है
तब जाकर बनता खबर हर कोइ जिसे देखता पढता है
घोटालों हवालों से लुटते जाते
गणतंत्र के अधिकार बताते
लडते- लडाते गठबंधन से
लूटने की सरकार चलाते
खून गरीबों का बेच यह स्वर्ण बनवातें
स्विस बैंक मे छुपे-छुपाते जमा करवाते
देश रतन अब बनते खिलाडी
नोटों पर केवल गांधी बाबा ही छपते
कितने बर्षो के बाद अब महज तुम सिक्को पर
छापने की एक सोच बने टकसालो मे आतें
नमन तुम्हे अब करने मे पाखंड
मुझे अब लगता है
सब देख- सुन कर चुप रहना
शायद यह मेरा भी एक मौन समर्थन ही होगा
कैसे कोइ शब्द करूं मै अंकन
कैसे नमन करूं अब तुमकों
तुम ही बतलाओं ?
लज्जा से दुखता सर अब झुकता
झुकता झुकता सा जाता है ।

गुलाम

रोटियाँ भी जल जाती है
मेरे भूख की तेज आँच से
पिघल जायेगें तुम्हारें
मोम के शेर
मेरी परछाई के धाह से
मेरे वजूद को भूल जाओं
अब आजाद  कर दो मुझे
अपनी पनाह से
घिसोगें मुझको तो
तुम्हारें हाथ जल जायेगें
मुझे बख्श दो मेरे आका
अब
मै अलादीन का चराग नही हूँ ॥
-----------------शिव शम्भु शर्मा