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Wednesday 10 December 2014

हजारो साल से दास रहे जिल्लत को फ़ख्र समझने वाले देश मे


हजारो साल से दास रहे जिल्लत को फ़ख्र समझने वाले देश मे
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लिखने का अर्थ है --पत्थर पे सर पटकना
पेट और मन की भूख की टीस लिए जीना
जवानी मे चेहरे का रंग बदरंग हो जाना
असमय मे ही चेहरे पर झुर्रियां पड जाना
अरण्य मे पुरी ताकत से चिल्लाते रहना
कौवों के प्रहार से सर से लहु टपकना
कुत्तों के काटने पर भी लडखडा कर चलना
रेल की पटरियो पर लेट कर जीना
धडधाती रेल को उपर से गुजरते देखना
--------सह सकते हो इतना ?
अगर हाँ ------तब लिखना कविता
इतना आसान नही है कवि होना ।
-----------------------------श्श्श ।

सन्नाटा



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एक ने कहा --ईश्वर है
दुजे ने कहा --ईश्वर नही है

एक ने कहा---तू मूर्ख है
दुजे ने कहा-- तू महा मूर्ख है
एक ने कहा --तू मुझे नही जानता है
दुजे न कहा---मैं तुझको तो क्या तेरे बाप तक को जानता हूं
बस शुरू---
गुत्थम--गुत्थी लत्तम--जुत्ती

भीड बढने लगी
तमाशबीन जमने लगे

कमीजें  फ़टी-----
एक के कमीज का फ़टा लाल टुकडा लहराने लगा
पास के ही कीचड मे सना लेटा साँढ खडा हो गया

हुंकार  भरते दौडा साँढ

एक भयंकर शोर के साथ

अभी -अभी जहाँ इतना कुछ था
पलक झपकते ही
अब वहाँ कुछ भी नही था ।
-----------------------श्श्श ।



Saturday 6 December 2014

रोज-रोज


मैं रोज-रोज नही लिख सकता
क्योंकि लिखना मेरा कोइ शगल नही है
और न  पेशा
न तो कोइ शौक है न ही कोई मजबूरी

न तो किसीसे किसी तरह का कोइ अनुरोध है
न ही किसी किताब में छपने की चाह

यह तो महज
बस  उस अल्लहड पन सा है
जो बह उठती है कभी- कभी
उन हवाओ के  झोकों  की तरह
बिल्कुल अनमने से

 बगैर किसी
अनुनय-विनय अथवा प्रतीक्षा के

और इस बात से भी बेखबर
शीतल कर दे किसी को
अथवा खुश्क ।
------------------श्श्श।