स्वागत है आपका ।

Sunday 27 October 2013

विनम्र अनुरोध


**********************
अब कवियों से
और कविताओं से डर लगने लगा है

पढने से पहले यह पता लगाना बेहद जरूरी है
कि कवि किस पार्टी का गुमाश्ता है

प्रकाशकों से यह विनम्र अनुरोध है

कृपया साहित्य की पुस्तकों के उपर
उनकी पहचान के तौर पर

उनकी राजनीतिक पार्टी का नाम बडे मोटे अक्षरों में
अनिवार्य रूप से  छपवा  दे

हम अपने मेहनत के पैसे और बहुमूल्य समय खर्च करते है
अब इतना तो हक  बनता ही है हमारा ।
-------------------------------एक पाठक ।


Thursday 24 October 2013

अमूर्त यात्रा ।

अमूर्त यात्रा ।
***************
वे लोग जो प्रशंसा ख्याति नही चाहते
अपनी दुकान नही लगाते
गुप्तदान कर जाते हैं

दया और करूणा के बीच का यह अंतर
वे नही समझ पाते कभी

जिनके नाम और पते खुदे होते है
संगेमरमर के आयतों में

और चस्पाये जाते है मंदिरों अस्पतालों
अनाथालयो की दीवारो पर

परिभाषाओं की परीधियों में कैद
अनजान
नही लांघ पाते कभी वह दीवार जिसके बाद ही
शुरू होती है जीवन की अथाह
अमूर्त यात्रा ।
-------------------शिव शम्भु शर्मा ।


Wednesday 23 October 2013

चापलुसी


**************
जनाब ईमानदार है
सृजन कर रहे है
यानी
अपना मकान स्वयं बना रहे है
बहुमुखी प्रखर प्रतिभा कुशाग्रबुद्धि की मति के धनी है

इनकी रचनात्मकता
रचनाधर्मिता उत्कृष्ट है
और इस सहगुणधर्मिता के एकलौते वारीश केवल जनाब है

इन्ही के सृजन की बदौलत कायम है अब तक की स्थापत्य कला
और देखो
दूर से दीख रही है जो
वह धवल ईमारत
जनाब की उपलब्धियो का एक दृष्टांत मात्र है

आओ इनसे दीक्षा ले
और करे
इनकों नमन ।
(कारीगरों मजदूरों का इसमे कही कोई जिक्र नही होता )
--------------------शिव शम्भु शर्मा ।

चाँद

सजधज कर वह चाँद को देर रात गये निहार रही थी
चाँद का कही पता नही था
जब चाँद निकला
तब खिलखिला कर हँस रहा था
अपने सगे के मनुहार पर
और
आदमी के आदमी होने के व्यापार पर ।
--------------शिव शम्भु शर्मा ।

Tuesday 22 October 2013

सिफ़ारिश


**********
चापलुसों से भरा पडा है
हिन्दी साहित्य
सोचता हूँ इतना बुरा हाल क्यो है ?
कोई किताब ऎसी क्यो नही मिलती
जिसके पहले या आखिरी पन्ने पर
चापलुसी पसरी न हो ?

कितना विवश है साहित्य का यह जीव
बहुत बुरा लगता है मुझे ऎसी चापलुसी से

इस घिनौनी लाग लपेट की
लोलुपता भरी  सिफ़ारिश से
उस बौनी समझ से जिससे पाठको को उकसाया जाता है
वह भी महज एक किताब खरीदने के लिये

क्या सचमुच बिना सिफ़ारिश के इस देश मे कुछ किया नही जा सकता ?
अगर ऎसा है तो लानत है
इस विधा को ।
-----------------शिव शम्भु शर्मा ।


Monday 7 October 2013

बहुत कुछ छूट जाता है


********************
शहर में बसते है हर बरस गाँव आते है
कार से छुट्टियाँ मनाने
उनकी कलम लिखती है -कविता

गाँव की सोंधी माटी की  लिखी जाती है सुगन्ध
उनका सफ़ेद कागज हरे रंग में बदल जाता है
उनका जन्म सावन के महीने में हुआ था
उनका कुरता प्रेम के विरह में गीला हो जाता है

और उनसे
छूट जाता है बरसात में बजबजाते
बँसवारी में फ़ैले मल की सडान्ध

छूट जाता है खाट पर पडे बीमार बूढे पिता
को ढोते चार दलितों की दुलकियाँ चाल
वे नही देख पाते
गाँव से सदर अस्पताल तक  की फ़िसलती
करईल माटी की कीच भरी फ़िसलन
पैसे के बगैर मौत पर फ़फ़कती किस्मतें
दहाडे मारती गरीब गुरबां औरते

उनसे छूट जाता है वह भिखुआ चमार
जिसकी बेटी के
गोईठा पाथने से मना करने पर
खंभे से बाँध कर जिसे पीटता है परधान

उनसे छूट जाता है बडकवन के टोले के मनचले
शोहदो का दलितों के घरों में घुसना

उनसे छूट जाता है
नान्ह के छोटे से खेत के डंरार को तोडकर
अपने खेत मे मिलाकर हडपना
गरजते हुए बडकवन का लऊर दिखाना बंदूक तानते
बात बात पर गरियाते
उनके गोतिये

बहुत कुछ छूट जाता है उनसे उनकी कविता में
वे कवि है अफ़सर है

अनाज लेकर जाते है
और छोड जाते है हमारे लिये थोथा ।
--------शिव शम्भु शर्मा ।




Sunday 6 October 2013

पुनर्जन्म


**********
ओ हिन्दी के कमजोर ! मरियल फ़िसड्डीयों
कक्षा में सबसे पिछली बैंच पर बैठने वाले
सडी गली हड्डियों !

आज के हिन्दी के  पुरोधा बने कवियों !
पुनर्जन्म की मिथक अवधारणा के पोषकों

कविता में चमत्कार उत्पन्न करने वालो !
झूठे मक्कारों ! मैं तुम लोगो से पूछता हूँ
और तुम्हें पुरस्कृत करने वाले तुम्हारी बिरादरी से पूछता हूँ

बताओ आत्मा अगर अमर है तो  वह कहाँ गई ?
किसके शरीरों में समाहित है ?

भगत सिंह
चंद्रशेखर
सुभाष
सुखदेव
खुदीराम
बिस्मिल
जैसे तमाम अमर शहीदो की आत्माये ?
आत्मा तो अमर है न ! तो फ़िर कहाँ है ?
बताओ ?

देश में रौदे जा रहे लोग
बेखौफ़ घूमते लुटेरे

हत्या लूट गरीबी भ्रष्टाचार भूखमरी बेरोजगारी
चोरबाजारी जैसी रोज-रोज की लानत भरी खबरें
क्या तुम्हे सुनाई नही देती ?
कि दिखायी नही देती ?

घिनौने कुकर्मियों  बलात्कारियो का बेखौफ़ घूमना
जेल से छूटना
निकम्मी सरकार की बेचारगी भरी ऎसी भिखमंगी अवस्था क्यो है ?
---------------------शिव शम्भु शर्मा ।






मेरा वजूद


****************
इस घूमती दुनियाँ में चक्कर लगाते -लगाते
घूमते -घूमते
तुम्हारी कविता थककर जहाँ खत्म होती है
मेरे दोस्त !
ठीक वही से शुरु होती है मेरी कविता
और मेरे संग होता है मेरा अकेलापन

दूर दूर तक पसरा यह अंतहीन बियावान
निर्वातमय  अरण्य

न कोइ संगी न साथी
और न कोई ईश्वर

जहाँ अकेला भटकता रहता हूँ मैं
उस अर्थ की खोज के तहों में
जहाँ निरूत्तर हो जाता है समय
और बंद हो जाती है घडी

सामने होता है वही सन्नाटा
वही घनघोर असीम अंधेरा
जहाँ दौलत शोहरत किस्मत जैसी किसी चीज का कोई अस्तित्व नही होता

मेरे पास बस मेरी
प्रकृति प्रद्त्त चेतना है
प्रेम है
जो तुम्हारे पास भी है

वही रह--रह कर सालती है
साथ-साथ चलती है
और जानती है मेरा होने के वजूद का अर्थ
और इसीलिये बार-बार लिखकर
जान बूझ कर
मिटा कर फ़ेंक देती है
मेरे होने का सबूत ।
----------शिव शम्भु शर्मा ।

Saturday 5 October 2013

प्रेम

सुनो ! हे कविवर ! हे महात्मन !
सुनो !
कभी आत्मा के अस्तित्व के विरूद्ध मत लिखना
ईश्वर
धर्म
संप्रदाय
जात और
रूढियों के विरूद्ध तो कतई नही लिखना
भूल कर भी
वर्ना इस देश से निकाले जाने की संभावनायें  बढ सकती है
या बेमौत मारे जा सकते हो

हे मानव श्रेष्ठ !
अगर लिखना है तो प्रेम पर लिखो
सुरा सुन्दरी और सुराहीदार गर्दन पर लिखो
उस प्रेम पर लिखो
जिसमे प्रेमी युगल आलिंगनबद्ध होने की बाट जोहते है
जिसमे प्रतीक्षा विरह अश्रु और मिलन की बात होती है
इश्क और सूफ़ियानों की मर्दानी जात होती है

हे ! विद्वन !
यही वह सरल पथ है
वह सरल भाषा है
जिसका अर्थ जलचर नभचर और उभयचर सभी समझते है

हे ज्ञान चक्षुवर !
यही वह गलियाँ है जो उन महलों के किलों तक पहुचती है
जहाँ राजे महाराजे विराजते है
और बाँटते है मोहरें रेवडियाँ

और इस तरह लोकप्रियता की झडियाँ लग जायेगीं
फ़िर आपकी लिखी किताब तो क्या
एक मामूली तश्वीर भी खरीदे जाने के लिये मारामारी होगी
हे अधिष्ठाता ! सुनो !
सदियो से
यह देश ऎसा ही है ।
----------------------------शिव शम्भु शर्मा ।


Friday 4 October 2013

मै लिखकर मिटा देता हूं

मै लिखकर मिटा देता हूं
संजोकर रखना नही चाहता

अकेला हूं
रेत पर
रोज देखता हूं
आती जाती लहरो को
लिखे हुए हर्फ़ो के हश्रों  को

न भी मिटाउँ
तब भी ये खुद ब खुद मिट जायेंगी
मुझे लहरों का सहयोग भी नही चाहिये ।
-----शिव शम्भु शर्मा ।

Thursday 3 October 2013

मौलिक हक


************
आजादी के पहले से ही
इस देश में योजनाओ की कई नदियाँ बहती है
कही नरेगा कही मनरेगा कही कुष्टरोग निवारण

तो कही बाढ आपदा नियंत्रण नदी
कही पशुओ के चारे की नदी
आदि-आदि

नहाकर धोकर ड्र्म में भर कर लगभग सभी ले जाते है
यही तो  लोक तंत्र का मौलिक हक है

लालु जी नए थे और गरीब तबके से आते थे
सो हहुआना वाजिब  था
नदी में मोटा पाईप लगवा बैठे
और सारा पानी अपने घर ले गए
नदी सूख गई
खबर बन गई
गलती बस यही हुई

वैसे अरबपति तो हो गए
बहुत नाम भी कमाया

और देखिये ये जेल वेल से क्या होता है ?
तेरह साल गुजर गया
आपने देखा ही
और आप यह भी देखेगें
जनाब बाहर निकलेगे
उपरी अदालत की कृपा बरसेगी
फ़िर आठ दस बरस निकल जाएगा
बेचारी नदी फ़िर बहेगी ।
------------------------शिव शम्भु शर्मा ।


’ जात ’


***********
कभी कभार
जब  जाता हूं गाँव
तब यकीन मानो
पर लग जाते है
जमीन पर नही होते है-पांव
पहचान वाले  पूछते है- हाल
अपने खेत खलिहान बधार जवार से
मिलकर
तब  हरा हो जाता  है मन
और चौडी हो जाती है छाती

कई जो मुझे नही जानते
आपस में कानाफ़ुसी से
पूछते है मेरी  ’ जात ’

और दबंग मुझसे मेरे पिताजी नाम पूछते है
जैसे टटोल लेना चाहते हो मेरी  ’ जात ’

और यहीं से निश्चित हो जाता है
उनके व्यवहार की श्रेणी

मेरे रहने से
नही रहने से
कितनी बडी चीज है मेरी
’ जात ’ ।
-----------------शिव शम्भु शर्मा ।



Wednesday 2 October 2013

मुझे पता है


***************
कल मौकाए दस्तूर था
नेता जी आए
गाधी पर कुछ बोलना था
सो बोल गए
तालियां बजी
लड्डू बटे
लोग घर गए
***********
आज धर्मनिरपेक्षता पर गरज रहे है
कौमी एकता पर बरस रहे है
************
मुझे पता है जनाब
बिना मुहूर्त के कोई शुभ काम नही करते
रोजे मे इफ़्तारी खाने गले मिलने जाते है
किन्तु अपनी
बराबरी के अपने ही सहयोगी अल्पसंख्यक के बेटे से अपनी बेटी
की शादी  की बात सोच तक  भी नही सकते
*******************
मुझे पता है
इस देश में
गांधी और धर्मनिपेक्षता का अर्थ ।
---------------शिव शम्भु शर्मा ।