स्वागत है आपका ।

Thursday 31 January 2013

तुमसे मिलने आयेगे



नदी ओ नदी !
तुम कभी रूकती क्यों नही ?
बहती क्यों रहती हो ?
ढलानों की तरफ़ तो सभी फ़िसलते है
क्या तुम भी उन जैसी  ही हो

उचाईयों पर के पहाड कितने हरे भरे है

हम तपती नंगी  झुलसती घाटियां
सूखे पेड और सूखी झाडियां हैं
सूख कर भी हम नही  सूखते  है
तुम्हारी आस मे खडे राह तकते है

बारिश की फ़ुहारें  भी हम तक नही टिकती
वह भी तो  तुमसे ही जाकर मिलती

क्या तुम हमसे मिलने नही आओगी
हम तक पहुंचनें से कही तुम भी
तो नही डरती ?

हम तो किसी से नही डरते
चलो जाने दो
रहने दो
मत आना

भुरभुरे हो कर हम जब झड जायेगें
मिट्टी मे मिलकर
पानी के संग बह कर

तुमसे मिलने आयेगे
तुम आओ न आओ
हम तुमसे मिलने आयेगें।
-----------शिव शम्भु शर्मा ।

Monday 28 January 2013

गिलहरियां


गिलहरियां
****************
काले चुहे  बिलों में
छिपे रहते है
ये आदमी से कितना डरते है !

सफ़ेद चुहे आदमी से तो नही
पर घर से  बाहर निकलनें से डरते है
ये दोनो बडे गंदे महकते है
और

गिलहरियां ! ओह ;

कितनी स्वछंद
कितनी निडर

फ़ुदकते हुए
तेजी से चढती उतरती पेड पर
और
अपनी झबरीली पूंछ फ़ैलाकर
कुछ कुतरती रहती है

सचमुच कितनी सुंदर लगती है
गिलहरियां
एकदम
निर्विकार ।
-----------शिव शम्भु शर्मा ।







Friday 25 January 2013

कवि प्रदीप


"ऐ मेरे वतन के लोगो तुम खूब लगा लो नारा "
---कई लोगो से मैने यह पूछा --गीत किसका है ?
लोग हंस रहे थे --बोले ये भी नही जानते तुम किसी अजायब घर के नमूने हो क्या ?
अरे देश का बच्चा बच्चा जानता है --यह लता जी का है ।

मै चुप रहा सोच रहा था कितने बेदर्द बेगैरत अंधे लोग भरे है
जो एक मनमोहक सुरीली खोल के भीतर छिपे उस गीतकार कवि प्रदीप को नही जानते
 --------------शिव शम्भु शर्मा ।

स्वाधीनता का स्वाद


फ़िर आज
झंडा लहराया
फ़ूल बिखरें
तालियों की गडगडाहट के साथ
दी जाने लगी परेड की सलामी
गुंज उठा देश गान
फ़िर एक जोशिला भाषण
फ़िर तालियो की गुंज
अंग-अंग देश प्रेम से सिहर उठा

विशिष्ट लोगो को बांटी जाने लगी मिठाइयो के पैकेट
आम लोगो को लड्डू

कुछ बच्चें जो झुग्गियों झोपडियों के फ़टेहाल घरों से आये थे
हर वर्ष की तरह
एक रोबिलें सिपाही की डांट खाकर
परेड के मैदान से बाहर थे
वही सबसे उत्साहित जोर जोर से तालियां बजा रहे थे
और
अपनी हथेलियों पे चाट रहे थे स्वाधीनता का स्वाद
बुंदिया के दाने कटोरों मे भरना चाहते थे
रोबिला सिपाही डांट कर भगा रहा था ।

देश का झंडा लहरा रहा है
सचमुच मेरा यह देश  महान है ।
------------------शिव शम्भु शर्मा ॥

अकेला नही


जो देखता हूं
जो गुजारती है मुझपर
लिख देता हूं
वह मेरी रूचियां है मात्र
मेरी पसंद है केवल
मेरे रिक्त और तिक्त मन के तरंगों की
हिलोरों की
थपथपाहट है
जो  मुझसे टकराकर
ठहर जाती है मेरे पास
मुझसे बातें करती है
और कई दिनों तक
अनुगुंज बन कर मेरे साथ रहती है
मेरे स्वयं के संग एक परिधान पहन  कर
मै अकेला नही होता कभी

यह कतई जरूरी नही है कि मेरी रूचियां औरों को भी पसंद आए
मै किसी प्रशंसा वाहवाही या प्रोत्साहन की प्रत्याशा से नही लिखता
स्वयं को ही फ़टने से बचाने के लिये वह मेरा एक प्रयास मात्र  भर होता है
मै कोई कवि नही हूं जो लिखता हूं वह मुझे स्वयं भी पता नही होता
कि वह क्या है ?
और यह जानना भी जरूरी अब भी नही समझता
चाहता हूं बस अपने बीते क्षणों को कैद करना
कि जब चाहे उन्हे देख सकूं दुबारा
और याद रख सकूं
जी सकूं एक संपूर्ण मृदु शांत जीवन
--शोक संताप से रहित ।
------------------शिव शम्भु शर्मा ।

Wednesday 23 January 2013

मजूर



हमें ठंड नही लगती
जेठ की धूप नही जलाती
और बारिश भी नही गलाती

हम घी नही है कि
जम जायेगें
हम फ़ूल नही है कि
कुम्हला जायेगें
हम बताशें नही  है कि
गल जायेगें


तुम हमें देख नही सकते
समझ भी नही सकते
वो इसलिये कि
तुम आदमी हो
हम आदमी नही है
तुम्हारी  तरह कि
बता सके मौसम का लब्बोंलुआब

हम हाड मांस के चलते फ़िरते
अस्थिपिंजर है
मशीनो की तरह

..........मशीन है ।
----------------शिव शम्भु शर्मा ॥

इजाजत नही देते ॥


मोटर साइकिल कार और एपार्टमेन्ट के इस नये दौडते युग में भी
मै  साईकिल से चलता हूं
ये शौक नही है मेरा
और मै अकेला भी नही हूं
एक अंतहीन भूख लिये
मेरे साथ कई दिहाडी खटने वाले
सफ़ाई पुताई करनेवाले  धसियारें और
अधमरें मजूर भी चलते है

मेरे सामने हजारो मलीन मुर्झाये चेहरे है
उजडे घर बेबश बीमार लाचार बच्चे है
और एक बेहया देश है

हर रोज मै
ऎटलस साईकिल के ट्रेड मार्क पर खुदे चित्र में
एक अधनंगे आदमी को अपने कंधे पर पृथ्वी ढोते देखता हूं

मेरे कंधे मजबूत  है
मै रो नही सकता
हँस भी नही सकता
और न कर सकता हूं विलाप
औरतों और बच्चों की तरह

मेरे हाथों मे बहुत दम है
नही ले सकता किसी की भी सहानुभुति

मेरे कंधों के भार मुझे
इसकी
इजाजत नही देते ॥
---------------शिव शम्भु शर्मा ।

Tuesday 22 January 2013

अंग्रेजी भारी है


हिन्दी हल्की , अंग्रेजी भारी है
कैसी फ़ैली ये महामारी है
चलो अच्छा है
न ये हमारी है
और न तुम्हारी है
अंग्रेजी के द्वार पर
अक्ल गई मारी है

फ़िर क्या
खिचडी के लिये
आज भी
कटोरा लिये खडा
भारतीय भिखारी है ।
----------------------शिव शम्भु शर्मा ।


हमारे लिये मरण है



हमारे लिये मरण है
****************************
हम शब्द नही उगाते
फ़सल उगाते है
हम कलम नही चलाते
हल चलाते है

तुम खीचते हो लकीर
कागज पर
कलम की धार से
शब्द सजाकर अर्थ बनाते हो
तुम्हारे अर्थ टहटहाते है

हम भी  खीचते है लकीर
जमीन पर
हलों के फ़ार से
बीज बोकर फ़सल उगाते है
हमारे फ़सल भी लहलहाते है

तुम कवि हो
हम किसान है

इतना अंतर क्यो है ?
हममें तुममें


बोलो
यह कैसा साहित्य है
जिसपर  तुम्हारा ही
केवल आधिपत्य है ?

तुम्हारा कथ्य महान है
और
हमारी आफ़त मे जान है
क्या किताबो मे लिखा
बस इतना ही ज्ञान है ?

यह कैसा व्याकरण है ?
पूजे जाते तुम्हारे चरण है
और हमारे लिये मरण है ॥
----------शिव शम्भु शर्मा ।

Monday 21 January 2013

क्या अकेले तुम ही देश भक्त हो ?


क्या अकेले तुम ही देश भक्त हो ?
******************************
लोग जब समझना ही नही चाहते
फ़िर  तुम क्यों बार बार
उन्हे समझाते रहते हो  ?

ये लोग  तुम्हे  कभी नही समझ सकेगें
वो इसलिये तुम साधारण हो
और साधारण को साधारण कभी
असाधारण नही समझते


चुम्बक के समान ध्रुवों में विकर्षण होता है
क्या यह भी तुम्हे फ़िर से समझाना पडेगा   ?

पगले ! यह सदियों का गुलाम देश है
यह रोग इसके खून में है
इतना अर्सा गुजर गया
और गुजर रहा है
क्या यह सबूत काफ़ी नही है
तुम्हारे समझने के लिये ?

ये लोग ब्रांडेड के पीछे भागते है
अंधी भेडॊ की तरह

तुम स्वयं भी तो कुछ नही समझते  ?
क्या अकेले तुम ही देश भक्त हो ?

अब तुम्हे कितनी बार समझाउंगा
मेरे प्यारे
कि चुप रहा करो यहां
गूंगों की तरहा ।
-------------शिव शम्भु शर्मा ।


वन में ।


जरूरी नही है कि तुम मेरे प्रश्नो के उत्तर दो
जरूरी यह भी नही है कि तुम मेरे प्रश्नों को पसंद भी करो
ठीक
वैसे ही
मेरे लिये भी
यह
कतई जरूरी नही है कि मै तुम्हारें प्रश्नों का उत्तर दूँ
यह भी जरूरी नही है कि मै तुम्हारें प्रश्नों को पसंद भी करूँ

पर मै ऎसा हरगिज नही करूंगा
ऎसा करने पर तुममे और मुझमे अंतर क्या बचेगा ?
और इस अहं से बडे उस प्रश्न का
और
मेरी उस तलाश का क्या होगा ?
जिसे मै लगातार खोज रहा हूं
अनथक
कुहासे से भरे इस बीहड
वन में ।
--------------शिव शम्भु शर्मा ।

चलते चलते



(मित्र मिथिलेश जैन से अभिप्रेरित )
*********************************
हम समझते कि हम चलते है
सडक पर

चलते चलते
हम यह भूल जाते है
सडके भी चला करती है
और
हम जहां थे वही के वही
खडे रह जाते है
एक पेड की मानिन्द

हमारे हाथ मे कुछ नही बचता
और रह जाते है बस
टुकुर टुकुर
ताकते ।
----------शिव शम्भु शर्मा ।

Thursday 17 January 2013

कलम


वह
रोज बोता है
रोज काटता है
झूठी तसल्लियाँ चाटता है
और भूख से छटपटाता है जब
उसका शब्द पत्थर हो जाता है

हम शब्द नही बोतें
वाह वाहियों पर नही जीते
पसीनें बोतें
हम किसान है
हमे फ़ख्र हैं
हमारी फ़सल से तुम्हारा पेट चलता है
और तुम्हारी कलम चलती है॥
-------------------शिव शम्भु शर्मा ।

Tuesday 15 January 2013

कुंभ


नदी में नहातें साधु ने कहा :
दर्द देना उसका स्वभाव है
और क्षमा करना मेरा स्वभाव है
हम दोनो अपने अपने स्वभाव को नही छोड सकते
महान वह है जो हर हाल में प्रतिहिंसा नही करते

चीटी आई और काटी
साधु पानी में खडा रहा अपने को कटवाता हुआ

दुसरे दिन
बिच्छु आया डंक मारा
साधु खडा रहा पानी मे डंसवाता
जानता था इसके काटने से कोई नही मरता
और अब भीड बढने लगी
होने लगी तैयारी एक बहुत बडी भक्ति पूजा की

तीसरे दिन-- भीड बडी थी
साधु पानी मे खडा था
इस बार एक जमीन का काला नाग आया
इसे देख साधु नंगा पानी से निकल भागा
तब से भाग रहा है
और नंगा है
और जिन लोगो ने काले नाग को नही देखा था
वे भक्त बनकर उसके पीछे पीछे आज तक दौड रहे है

तभी से   साधु नदी में नही नहाते
केवल राख मलते है

जब मोक्ष के लिये नहाना बेहद जरूरी हो जाता है
तब पुरे देशभर  के साधु एक बडा जमावडा करते है
और एक साथ डुबकी लगाते है
अनजान भक्त आज भी उनके साथ डुबकी लगाते है
और कुंभ नहाते है ।
----श्श्श ॥ ( एक सिरफ़िरे की दुर्लभ डायरी )




चार सिरफ़िरे


चार सिरफ़िरे
*************************
एक ने कहा --गांधी ने  दिलवायी है -आजादी
दुसरे ने कहा--नही गरम आंधी ने  दिलवायी है -आजादी
तीसरे ने कहा -- अरे ! नही ! ये लडे जरूर मगर  इन दोनों से कुछ नही हुआ न कुछ होना था
असल में मेरे दादा जी दुसरे महायुद्ध में लडने जर्मनी गए थे
जो लौट कर वापस नही आए
उनकी ही फ़ौज ने दिलवायी  है -आजादी
चौथें सिरफ़िरें ने कहा - देख अब ज्यादा हांक मत , और सुन शेखियां न बघार , हमें पागल न जान
दुसरे महायुद्ध में लुटे पिटे हारें  अंग्रेज ही इस काबिल  नही बचे रहे कि चला सके तेरा ये हिन्दुस्तान ॥
---------------------श्श्श । (एक सिरफ़िरे की डायरी )



पानी ।।


अपनी पार्टी के वाद की कई टोकरियां
फ़ुटपाथियों के सर पर लदवा कर चलता है
वह दोनो हाथो से पैसे लुटाता उड कर आता है
एक बहुत बडी भीड जुटाता है
जोर से हांफ़ कर
डांफ़ कर
तालियां बजवां लेता है
और हर बार वह जीत जाता है

हर बार  भुलक्कड  फ़ुटपाथिये ये भूल जाते है
कि कुत्तों को घी नही पचता
और कमीनों को पानी ।।
-------------------श्श्श

Monday 14 January 2013

एक महादेश !


 बख्श दीजिये अब  मुझे ॥ (एक सरफ़िरे की पुरानी फ़टी डायरी का एक अधूरा पन्ना ,)
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किसे ढूँढ रहे है आप -- जनाब ? क्या कहा देश ! कौन सा देश ?
किसका देश ?
कैसा देश ?

नक्शें में ?
किताबों में ?
रैलियों में ?
भाषणों में ?
यहाँ ,..? या अरे,.. कही भी जाइये ,..आपके खोजने से यह नही मिलेगा

अजी किताबों से बाहर निकल जाइये
कायदे से
इत्मीनान से
दूर तलक जरा  टहल घूम आइये
रेशम के प्युपें के अंदर न देखिये
जरा बाहर भी झाकिये
चश्मा उतार कर नजर से नजारा देख आइये
तब मुझसे बतियाइये

कहां थे अब तक ?
कहां तक पढे हो ?
किस कालेज के सडें हो ?
अजी ! घसियारें हो कि चरवाहें हो ?
कि किसी भटकती आत्मा की  कराहें हो ?
क्या आपको ये मालूम नही अबतक  ?

क्या कहा नाज है ?...
जनाब ! काहे का कैसा नाज है ?
कान खोल कर सुन लीजिये
अजी  ! यह देश कभी था ही नही
और ! ना आज है
यही  बात तो राज है
क्या अब भी आपको नाज  है  ?

अजी यह देश था ही नही  ,.. न आज है... यह एक महादेश था और आज भी है
जी हाँ !  चक्रवर्ती राजे रजवाडों शाहो शहंशाहों  नवाबों नफ़ीसों मालिकों मुख्तारों
फ़िरंगियों और उनके ही अनु वंशजो का
भूखे नंगे जुआडियों भिखारियों  साधुओं फ़कीरों सपेरों कायरों भगोडों का
डूबता उतराता तैरता एक विशाल जहाज सा भूखण्ड
एक महादेश !
एक महादेश !
जिसमें
कई देश केवल अपनी-अपनी सरहदों की रखवाली करते है
आज भी
आपस में लडते मरते कटते पिटतें
अपने अपने देश में मगन रहते
एक दुसरे की डाह से कहकहें उडाते
केवल अपना मतलब साधतें

यकीन नही है -- आपको ? तो न सही , इसमें अपना क्या जाता है ?
राज तो बता दिया मुफ़्त में , अब अहसान मानिये या न मानिये

यही बहुत कर दिया --अब तसरीफ़ ले जाइये
हमे फ़िलासफ़ी का फ़लसफ़ा और जुगराफ़िया न समझाइये
रास्ता नापिये अब अपना घर संभालिये

जाइये
जाहिलों गंवारों वहशी दरिन्दों मवेशियों को
अपने  देश की कागजी राष्ट्रीयता का ज्ञान सिखाइये या पढाइये
और
बख्श दीजिये अब  मुझे

नारें लगाइये भटकिये मार खाइये जहन्नुम मे जाइये या भाड में,....
अपना झंडा अपने कांधे पर उठाइये
यहाँ से चलते बनिये
अपनी बला से ।
----------------श्श्श ।

Saturday 12 January 2013

अंधेरा


किस पर यकी करूं मैं
किसे बताउं दिल की बात
फ़रेब  से भरे झूठे बाजार में
किसे दूं अपने दिल की सौगात ?

अंधेरा ही अंधेरा हैं जिस तरफ़ देखता हूं मैं
जंगल के इस झोपडें में शहर कहां से लाउं मै
कुछ दीये है महज कुछ जूगनुं भी हैं
बेगानों से भरे इस दुनियां में कैसे गजर बजाउं मै ?
-------------------------श्श्श

Friday 11 January 2013

हकदार


लेखक कवि शायर फ़नकार जैसे कलाकार
किसी धर्म जाति संप्रदाय से बंधे नही होते
क्यों बांधते हो इन्हें तुम अपने दायरों में ?
ये दायरों की दरारों मे नही होते
ये शख्स पुरी कायनात के लिये होते है
और
जो बंधे होते हैं रस्सियों में
जो रहते हैं तंग बस्तियों में
वे लोग चाहे जो भी हो जाए
मेरी समझ से
इस फ़न के वाजिब हकदार नही होते ।
----------श्श्श