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Tuesday 28 May 2013

वजूद



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सच ने हिम्मत जुटाकर
फ़िर एक बार सीना ताना
नथुनें फ़ुलाये
डट गया ईमानदार
होकर निडर

यह सोच कर
कोई हो ना हो
रहे ना रहे
उसका वजूद रहेगा हमेशा

सैकडों कैकडों  के डंक
के संग
जहरीलें बिच्छुओं के चौतरफ़े दंश
झेल न पाया

गिर पडा लाश बन
तमाशबीनों के बीच

खकियायें कुत्ते उसे सुंघते रहे
जब तक न हुआ पुरा पंचनामा

आँखो पर काली पट्टी बाँधे
कानून की देवी के तराजू के दोनो पल्ले
बराबर थे

दूर कही से रोनें की घुटी-घुटी
मद्धिम आवाजें आ रही थी

और
मूँछे ऎठते  हुए झूठ
तनकर खडा था
सीना ताने
उसी तरह
नथुनें फ़ुलाये ।
----------------शिव शम्भु शर्मा ।

Wednesday 22 May 2013

रक्तबीज

प्रशंसा
एक भूख है
एक लोभ है
एक लत है
एक नशा है
एक रोग है
लग जाने पर जल्दी नही छूटता
छूटने के बहुत कम आसार होते है
रक्तबीज की तरह ।
--------------शिव शम्भु शर्मा ।

Sunday 19 May 2013

क्षुद्र अहं

क्षुद्र अहं
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किस-किस से कहाँ-कहाँ बहस करता फ़िरुं
अपनी बात पर अडिग रहकर
ऊँचा बोलकर
अपनी विद्वता के सही होने का
सबूत जुटाता रहुं

क्यो ?
किसके लिये ?
क्या उस क्षुद्र अहं के लिये

जो विशाल विस्तृत अंतहीन समय में
घडी की सुईयों की गति तक समझने में
असक्षम है
क्या उसके लिये ?
---------------शिव शम्भु शर्मा ।

Thursday 16 May 2013

अंतर

रोज है दिखती
घूरे  के कुडे के ढेर पर
बक-बक करती
वह पगली
उसमें और मुझमें सबसे बडा यही अंतर है
मैं  कह सकता हूं उसे
--पगली ।
-----------------------शिव शम्भु शर्मा ।

दृष्टिदोष

दृष्टिदोष
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बडे आदमी का जेल जाना एक बहुत बडी खबर है
धाराप्रवाह दिखाई जाने लगती हैं लाईव- ब्राडकास्ट
जो वास्तव में एक भांड से ज्यादा कुछ नही होता

बहरकाल  इनकी छींक भी बडी खबर होती है
सक्रिय हो उठता है एक बडा वर्ग
खोजा जाने लगता है छींकनें का कारण
और चिकित्सकीय निदान
भेजे जाने लगते है मंगलाचरण पूर्ण शुभकामनायें
होने लगती है प्रार्थनाये
उघाडी जाने लगती है छीकने की रहस्य की परतें
छिड जाती है एक बहस

जबकि छोटे आदमी की निर्मम वीभत्स हत्या की खबर भी
कोई नही सुनता

ये लोग जो युगो-युगो से गुलाम रहे है
नही जा सकते अपनी परंपराओं  के विपरित
ये अपने आकाओं मालिको को खूब पहचानते है
माहिर है अपने फ़न में

आज भी है वही पुरानी चाटुकारिता और
कैद है
भेजों की झिल्लियों में पूर्वाग्रह

यही वह अंतर है
वह दृष्टिदोष है
जिससे बचे रह जाते है पूंजीपति और इनके
अनुषांगिक अनुगामी लोग
और धीरे--धीरे इसी तरह बेजान मुर्दो में तब्दील हो जाता है
--एक देश
---------------------------शिव शम्भु शर्मा ।

Wednesday 15 May 2013

भीड


भीड
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ऎसी जगह खडा हूं
जहां खडे रहने धक्के खाने  के सिवा
कुछ भी किया नही जा सकता
धकियाना भी भीड के वश में  है

शोर इतना है कि किसी से कुछ कहा-सुना नही जाया जा सकता
बस बदहवास पागलों सा रहा जा सकता है

पानी में तैरती उस डगमगाती नाव की तरह
जिसमें न केवट होता है और  न पतवार
सामने होता है बस थपेडता अथाह जल

वहशी सांडों की तरह जान लेवा बेहया भीड  है
जहाँ तलवे रखने से ज्यादा नही बची होती है  जगह

यह धीरज का समय  है
यह कविता का समय नही है

यह चतुराई बहादुरी का समय है
यह धूर्तई और लूट का समय है

भीड भरी ट्रेन में जैसे एक अनारक्षित अदद सीट लूटनें का
महज कुछ घंटॊं के सुकुन के लिये मरने मारने का
डांटने डपटने छिनने झपटने का समय है
एक अघोषित अराजकता का समय है

भरे बोरों की तरह ट्रेन में लदने का समय है
जिसकी लदाई और यात्रा
दोनो तय करती है--  भीड ।
------------------शिव शम्भु शर्मा ।

Tuesday 14 May 2013

भोर


गाँव मवेशियों के तबेले में तब्दील हो गए
अब वहाँ आदमी नही रहते
और शहर की सडक पर हाँफ़ता भागता  है
भगदड सरीखा तेज शोर
रोबोट यांत्रिक मशीनो की चहलकदमी है बस
आदमी मर चुका है
ठहर चुकी है भोर ।
--------------शिव शम्भु शर्मा ।

हम


फ़िर वही दिन
वही रात
फ़िर वही तुम
वही हम
फ़िर वही फ़ुहारें
वही बिजली का तडकना
वही मौसम
कही कुछ कहाँ बदला ?
सब वैसे ही है
जैसे थे
अभी तक
टँगी हुई तस्वीरों सी
दीवारों में
ठहरी ठहरी
सहमी सहमी
आकुल
तुम्हारें आने की राह जोहती
प्रतीक्षारत ।
----शिव शम्भु शर्मा ।

Saturday 11 May 2013

स्वयं से ही ।


स्वयं से ही
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तुम निरंतर प्रेम प्रेम चिचियाते रहते हो
मै क्या करूं ? तुम्हारे इस अंधे प्रेम का

कभी चिडियां नदी पर्वत तो कभी फ़ूल तितली
और न जाने  क्या-क्या बनकर बनाकर
उलझे उलझाये  रहते हो

तुम क्या जानो इन बेशर्मो धूर्तो
मक्कारों जाहिलो कमीनों को

कठकरेजो और नौटंकीबाजों को
जो रहते है तुम्हारे ही गाँव में
तुम्हारें अपने बनकर
तुम्हें लुआठने

और तुम दूर  पलक पांवडॆ बिछाये रहते हो उनकी याद में
लिखते रहते हो कोइ कविता कहानी
झेलते रहते हो अपने हृदय के बिछोह की पीडा

और निकाल लेते हो इन्हे अपने सभ्य
साफ़ सुथरे प्रेममय शब्दों की चासनी में  डुबाकर
रख देते हो सफ़ेद  कागज पर
कर देते हो इस तरह सच्चाई का खून
मै क्या करूं ? तुम्हारे इस संगीन अपराध का

छपवा देते हो कोई किताब
परोस देते हो गन्दी गालियों को छुपाकर
उत्कृष्ट साहित्य के स्टाम्प में संजोकर
बेच देते हो  बाजार में लीप -पोतकर

जैसे बेच देता है कोई चालाक हलवाई अपनी बासी सडी मिठाइयों  को
केवडे गुलाबजल कें तीखे सेंट में डुबाकर
चाँदी की चमकदार  वर्क चढवाकर
खूबसूरत रंगीन डब्बे में तौलाकर

क्या करूं तुम्हारे इस अंधे प्रेम का
जो सच व्यक्त करना नही जानता
या  नही चाहता  
हतप्रभ हूं स्वयं से ही ।
 --------------------------शिव शम्भु शर्मा ।

Wednesday 8 May 2013

आसमान


छोटे-छोटे दलों में बंटे बुद्धिजीवि भी
छोटे-छोटे प्रादेशिक राजनीतिक दलों की तरह है
परस्पर बिखरे हुए

कभी न सुखने वाले नासुर की तरह बहते हुए
अपने अहं महत्वाकांक्षा के विकार से संलिप्त

अपनी आगामी चौदह पीढियों के निबंधित सुख संसाधनो के जुगाड मे
तल्लीन
कार्यरत
निरंतर ध्यान साधना रत

गिद्ध की तरह आकाश में मंडराते हुए
नोचते रहते है अपना -अपना हिस्सा

बडे कायदे और मासुमियत भरे सलीके से
जिसे पालता है बडे शौक से वह आसमान
जो इस जमीन का होकर भी
इस देश का नही है ।
-------शिव शम्भु शर्मा ।

झल्लाहटें


झल्लाहटें कभी सही नही होती
किसी की भी
यह आपकी हो या हमारी
यही है जो बता जाती है अंदर की उस ईमारत का नक्शा
जिसमें  छुपा रहता है एक खंडहर
दृष्टिदोष युक्त आँखें जिसे देख नही पाती
देख नही पाती
वह खाली उलझा सा कमरा
वह झूठा दफ़न मकबरा
और वह मशवरा जो कतई जरूरी नही होता कभी
दुसरों के लिये
जितना कि जरूरी होता है
खुद के लिये ।
-----------शिव शम्भु शर्मा ।