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Sunday 26 October 2014

चेहरा

कभी सोचा नही था
एक दिन ऎसा भी आएगा
और
मन भर जाएगा इस कदर

खिडकी के पार के उस उजास से
जिससे दीखता है - आदमी का चेहरा
बिल्कुल साफ़

बार-बार
वैसा का वैसा ही
जैसा कभी सोचा नही था ।
-----------------शिव शम्भु शर्मा।

Tuesday 21 October 2014

जमीन से ।

जमीन से ।
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कवि
बहुत उची उडानें भरता है

असीम
अनंत आकाश में
किसी ठौर की तलाश में

कवि की उडान देख
तालियों की गडगडाहट
नीचे बजती हैं
जमीन पर

अधिक दिनों तक नि:शब्द
नही जिया जाया जा सकता है
अकेला
शुन्य के विस्तार मे

तभी तो
कवि को भी लौटना पडता है- आखिरकर

उन पक्षियों की ही तरह
जिनका दाना-पानी जुडा होता है

केवल और केवल
जमीन से ।
--------------------------श श श...।

Friday 17 October 2014

एक सच ऎसा भी


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सबों के पास इतना धीरज नही होता
कि सुनकर उसका सामना कर सके

सच तीखी मिर्च सा जलता है आँख में
बौखला देता है आदमी को

बना देता है उसे इतना खुंखार
कि आदमखोर हत्यारा भी मुंद लेता है
अपनी आँखे शर्म से

सच झेलना सबके बस की बात नही होती
अक्सर
आत्महत्या तक कर लेते है
कायर

कलेजा चाहिए सच के सामने  खडे रहने के लिए
सच को सच मानकर संघर्ष के साथ मुस्कुरा कर
जीते रहने के लिए ।
------------------------------श श श ।





Sunday 12 October 2014

उन दिनों


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उन दिनों 
मैं रोज देखता था
जल रही चिताओं के पास उनके अपनों का झुण्ड
उन दिनों से आज तक नही देखा 
किसी को भी
जल चुकी चिता के पास
मुझे अजीब नही लगता ऎसा देखकर
मुझे अजीब तब भी नही लगा था
जब फ़ुसफ़ुसाते हुए कईयों ने मुझे औघड कहा
उन दिनो लोग मुझसे कतराने लगे
और उन्हीं दिनों 
मैं लोगो का बहुत कुछ समझ चुका था ।
------------श श श ।

फ़र्क

फ़र्क
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वे लोग जो मेरे घर नही आते
अमूमन
मैं भी उनके घर नही जाता

वे लोग जो मुझसे नही बोलते
मैं भी उनसे नही बोलता

वे लोग जो मेरा भला नही सोचते
मैं भी उनका भला नही सोचता

लेकिन कविता मेरी तरह नही है
एक फ़र्क है

मैं जिस तरह सोचता हूं और करता हूं
उस तरह कविता न तो सोचती है
और न करती ।
--------------------------श श श,।


Friday 10 October 2014

चुपचाप

उलझनों ने कहा मुझसे
मत उलझा करो किसी से

गाहें बगाहें उलझते फ़िरते रहते हो अक्सर
तुम्हें पता है ये उलझनों की जडे क्या है
क्यो है  कहाँ से शुरु होती है कहाँ तक फ़ैली है ?

और कैसे पनपती रहती है ये
जमीन के अंदर और बाहर

कहाँ- कहाँ तक फ़ैली है इसकी शिराए-धमनियाँ  जटा- जुट
और आपस में उलझी रहती है बेतरतीब किस कदर

सुलझा पाओगे अकेले इतने बडे जंगल की इतनी सारी उलझनें
तब मेरी सुनो

एक वृक्ष की तरह जियों चुपचाप
और करते रहो वह सब
जो एक वृक्ष करता रहता है ।
-------------------श श श ।

Wednesday 8 October 2014

प्रेत

चाहे जितना भी भाग लो सरपट
दूर-दूर तलक

दुख पीछा करता रहता है
हमेशा
कभी दबे पांव
कभी खूब तेज कदमों से
आ धमकता है

कभी नही साथ छोडने की कसम खायी हो उसने जैसे

दुख सचमुच एक प्रेत है

सुख के प्रेत से काफ़ी ताकतवर
और इसीलिए
दबोच लेता है अपनी मुट्ठी में सुख को

और सुख
फ़डफ़डाता रह जाता है उस बेचारे अभागे पक्षी की तरह
जिसे दबोच लेता है कोई बाज

सुख फ़िर भी मरता नही है प्रेत जो ठहरा
फ़िर लौटता है
जी उठता है इठलाकर
उमगता है दौडता है तेजी से
और
उसी तरह फ़िर पीछा करता है उसके प्रेत का प्रेत
अनवरत ।
-----------------------श श श ।