स्वागत है आपका ।

Wednesday 10 December 2014

हजारो साल से दास रहे जिल्लत को फ़ख्र समझने वाले देश मे


हजारो साल से दास रहे जिल्लत को फ़ख्र समझने वाले देश मे
***********************
लिखने का अर्थ है --पत्थर पे सर पटकना
पेट और मन की भूख की टीस लिए जीना
जवानी मे चेहरे का रंग बदरंग हो जाना
असमय मे ही चेहरे पर झुर्रियां पड जाना
अरण्य मे पुरी ताकत से चिल्लाते रहना
कौवों के प्रहार से सर से लहु टपकना
कुत्तों के काटने पर भी लडखडा कर चलना
रेल की पटरियो पर लेट कर जीना
धडधाती रेल को उपर से गुजरते देखना
--------सह सकते हो इतना ?
अगर हाँ ------तब लिखना कविता
इतना आसान नही है कवि होना ।
-----------------------------श्श्श ।

सन्नाटा



************
एक ने कहा --ईश्वर है
दुजे ने कहा --ईश्वर नही है

एक ने कहा---तू मूर्ख है
दुजे ने कहा-- तू महा मूर्ख है
एक ने कहा --तू मुझे नही जानता है
दुजे न कहा---मैं तुझको तो क्या तेरे बाप तक को जानता हूं
बस शुरू---
गुत्थम--गुत्थी लत्तम--जुत्ती

भीड बढने लगी
तमाशबीन जमने लगे

कमीजें  फ़टी-----
एक के कमीज का फ़टा लाल टुकडा लहराने लगा
पास के ही कीचड मे सना लेटा साँढ खडा हो गया

हुंकार  भरते दौडा साँढ

एक भयंकर शोर के साथ

अभी -अभी जहाँ इतना कुछ था
पलक झपकते ही
अब वहाँ कुछ भी नही था ।
-----------------------श्श्श ।



Saturday 6 December 2014

रोज-रोज


मैं रोज-रोज नही लिख सकता
क्योंकि लिखना मेरा कोइ शगल नही है
और न  पेशा
न तो कोइ शौक है न ही कोई मजबूरी

न तो किसीसे किसी तरह का कोइ अनुरोध है
न ही किसी किताब में छपने की चाह

यह तो महज
बस  उस अल्लहड पन सा है
जो बह उठती है कभी- कभी
उन हवाओ के  झोकों  की तरह
बिल्कुल अनमने से

 बगैर किसी
अनुनय-विनय अथवा प्रतीक्षा के

और इस बात से भी बेखबर
शीतल कर दे किसी को
अथवा खुश्क ।
------------------श्श्श।

Monday 10 November 2014

एकांत


*********
वह जो शुन्य है मेरे लिए
वही उनके लिए  विस्तार है

वह जो मेरे लिए रौरव है कलरव हैं
वही उनके लिए
उत्सव है

वह जो उनके लिए क्लान्त का भ्रांत है
वही मेरे लिए  प्रशांत है

वह जो उनके लिए  वृतांत है
वही मेरे लिए एकांत है ।
-------------------------शिव शम्भु शर्मा ।

Sunday 26 October 2014

चेहरा

कभी सोचा नही था
एक दिन ऎसा भी आएगा
और
मन भर जाएगा इस कदर

खिडकी के पार के उस उजास से
जिससे दीखता है - आदमी का चेहरा
बिल्कुल साफ़

बार-बार
वैसा का वैसा ही
जैसा कभी सोचा नही था ।
-----------------शिव शम्भु शर्मा।

Tuesday 21 October 2014

जमीन से ।

जमीन से ।
*********************
कवि
बहुत उची उडानें भरता है

असीम
अनंत आकाश में
किसी ठौर की तलाश में

कवि की उडान देख
तालियों की गडगडाहट
नीचे बजती हैं
जमीन पर

अधिक दिनों तक नि:शब्द
नही जिया जाया जा सकता है
अकेला
शुन्य के विस्तार मे

तभी तो
कवि को भी लौटना पडता है- आखिरकर

उन पक्षियों की ही तरह
जिनका दाना-पानी जुडा होता है

केवल और केवल
जमीन से ।
--------------------------श श श...।

Friday 17 October 2014

एक सच ऎसा भी


*****************
सबों के पास इतना धीरज नही होता
कि सुनकर उसका सामना कर सके

सच तीखी मिर्च सा जलता है आँख में
बौखला देता है आदमी को

बना देता है उसे इतना खुंखार
कि आदमखोर हत्यारा भी मुंद लेता है
अपनी आँखे शर्म से

सच झेलना सबके बस की बात नही होती
अक्सर
आत्महत्या तक कर लेते है
कायर

कलेजा चाहिए सच के सामने  खडे रहने के लिए
सच को सच मानकर संघर्ष के साथ मुस्कुरा कर
जीते रहने के लिए ।
------------------------------श श श ।





Sunday 12 October 2014

उन दिनों


**************
उन दिनों 
मैं रोज देखता था
जल रही चिताओं के पास उनके अपनों का झुण्ड
उन दिनों से आज तक नही देखा 
किसी को भी
जल चुकी चिता के पास
मुझे अजीब नही लगता ऎसा देखकर
मुझे अजीब तब भी नही लगा था
जब फ़ुसफ़ुसाते हुए कईयों ने मुझे औघड कहा
उन दिनो लोग मुझसे कतराने लगे
और उन्हीं दिनों 
मैं लोगो का बहुत कुछ समझ चुका था ।
------------श श श ।

फ़र्क

फ़र्क
***************
वे लोग जो मेरे घर नही आते
अमूमन
मैं भी उनके घर नही जाता

वे लोग जो मुझसे नही बोलते
मैं भी उनसे नही बोलता

वे लोग जो मेरा भला नही सोचते
मैं भी उनका भला नही सोचता

लेकिन कविता मेरी तरह नही है
एक फ़र्क है

मैं जिस तरह सोचता हूं और करता हूं
उस तरह कविता न तो सोचती है
और न करती ।
--------------------------श श श,।


Friday 10 October 2014

चुपचाप

उलझनों ने कहा मुझसे
मत उलझा करो किसी से

गाहें बगाहें उलझते फ़िरते रहते हो अक्सर
तुम्हें पता है ये उलझनों की जडे क्या है
क्यो है  कहाँ से शुरु होती है कहाँ तक फ़ैली है ?

और कैसे पनपती रहती है ये
जमीन के अंदर और बाहर

कहाँ- कहाँ तक फ़ैली है इसकी शिराए-धमनियाँ  जटा- जुट
और आपस में उलझी रहती है बेतरतीब किस कदर

सुलझा पाओगे अकेले इतने बडे जंगल की इतनी सारी उलझनें
तब मेरी सुनो

एक वृक्ष की तरह जियों चुपचाप
और करते रहो वह सब
जो एक वृक्ष करता रहता है ।
-------------------श श श ।

Wednesday 8 October 2014

प्रेत

चाहे जितना भी भाग लो सरपट
दूर-दूर तलक

दुख पीछा करता रहता है
हमेशा
कभी दबे पांव
कभी खूब तेज कदमों से
आ धमकता है

कभी नही साथ छोडने की कसम खायी हो उसने जैसे

दुख सचमुच एक प्रेत है

सुख के प्रेत से काफ़ी ताकतवर
और इसीलिए
दबोच लेता है अपनी मुट्ठी में सुख को

और सुख
फ़डफ़डाता रह जाता है उस बेचारे अभागे पक्षी की तरह
जिसे दबोच लेता है कोई बाज

सुख फ़िर भी मरता नही है प्रेत जो ठहरा
फ़िर लौटता है
जी उठता है इठलाकर
उमगता है दौडता है तेजी से
और
उसी तरह फ़िर पीछा करता है उसके प्रेत का प्रेत
अनवरत ।
-----------------------श श श ।


Wednesday 24 September 2014

प्रशंसा !

प्रशंसा !
*******************
प्रदर्शन ! प्रदर्शन और सिर्फ़ प्रदर्शन
इसके सिवा
और कुछ नही ?
और कुछ नही ?

क्यो ?
ऎसा क्यो ??
ऎसा क्यो ??

प्रशंसा ! प्रशंसा ! प्रशंसा
यही चाहिये उसे बस यही और यही
चाहिये उसे सिर्फ़ यही

पर क्यो ?
पर क्यो ?

वो इसलिए कि वह जानवर नही है अब
आदमी है  ! आदमी है !

और आदमी का मतलब समझ लो
सिर्फ़ प्रशंसा !
प्रशंसा ! प्रशंसा ! प्रशंसा !

इसके सिवा और कुछ भी नही !
-----------------श श शर्मा ।

Monday 22 September 2014

संवेदना से संबधित नही है।

संवेदना से संबधित नही  है।
*************************
दर्शन भुगोल खगोल इतिहास विज्ञान  - वगैरह -वगैरह -वगैरह -वगैरह जैसे विषयों का संबंध
अगर आदमी से नही तो किससे है ?

कौन जानता समझता हैं इन्हें
कौन पढता लिखता गुनता बुनता हैं इन्हें

अब आदमी के नही तो फ़िर किसके मस्तिष्क की स्नायविक-उतकों की उर्जा से
संचारित होता है यह ?

बडा अजीब सा दायरा बनाया हुआ है  वह भी इसी आदमी का ही है
और कहते हो कि  यह कविता नही है दर्शन है भूगोल है फ़लां है ढकां है
यह जीवन से संबंधित नही है संवेदना से संबधित नही  है

कविता  को तुम किसी भी परिभाषा और परिसीमाऒं  में बाँध नही सकते हो !

मित्र ! कविता भील की आंखों में भी होती है
हाँ उसके पास वे शब्द और वह भाषा नही है जो तुम्हारे पास है
इसका मतलब यह नही कि उसके पास कविता नही है

यह अलग बात है कि तुम उसकी आँखों मे छुपी कविता पढ नही सकते
तुम नही समझ सकते उसे वो इसलिये कि तुम एक दायरे मे विश्वास करते हो
तुम जो समझते हो या जो तुम्हें अब तक समझाया गया है बस वही तुम समझ सकते हो

आसमान की असीम उचाईयों और झील की अतल गहरी गहराईयों  में
और उससे परें दुर-दुर तक फ़ैले नीरव में जहाँ तुम कभी नही पहुंच सकते
वहाँ भी कविता हो सकती है
इसे किसी नियत दायरों में बांधने की मुझे जरूरत नही महसूस होती
आगे तुम्हरी मरजी ।
----------------------------------श श श.।









Sunday 21 September 2014

फ़र्क

आज से नही
सदियों से  भिखारी हैं
चुंकि भीख मांगना अपने देश की एक संस्कृति है
और परंपरा भी

एक व्यवस्था भिखारी बनाता है
एक व्यवस्था भीख देती है

किसी को
भीख माँगते देख किसे अच्छा लगता है भला ?
भिखारन अगर  वृद्ध विधवा महिला हो तो और भी अच्छा नही लगता

अच्छा तो मुझे भी नही लगता
वरन कोफ़्फ़त होती है ऎसी दुर्दशा देखकर
पर कहुं तो कहुं आखिर किससे ?

अगर यही बात  कोई प्रसिद्ध /सांसद /महिला / अभिनेत्री कह दे
तो फ़िर क्या बात है ?
लोग टूट पडते हैं उस पर
सवाल करते है उसके महिला होने पर
अपने तरकश के बुझें तीर कमान निकाल कर

जैसे अब न बोलेगी दुबारा कभी वह
और मान लेते है
जैसे खत्म हो जाएगी यह भीख मांगने की परंपरा


और यही बात
कोई मुझ  अदना सा फ़िसड्डी आदमी कहे
तो कहता रहे अपनी बला से

सोचता हूं कितना  फ़र्क होता है
एक प्रसिद्ध और
एक गुमनाम के बीच ।
------------------------------श श 

Friday 19 September 2014

वे मित्र जो संघ अथवा वामपंथ के कट्टर प्रचारक है कृपया मुझे अमित्र करके राहत दे


*******************************************************************
मुझे  संघ और वाम पंथियों में कोई खास फ़र्क नजर नही आता ।
ये दोनो के दोनो  एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं
मेरे लिए
जितने मक्कार उतने ही खूंखार भी

इसलिये नही कि मैं इन दोनो को पढा नही
जाना समझा या परखा नही

जानता हूं इन दोनो को इनकी बेहतरीन खूबियो के साथ
इनके  फ़लते फ़ूलते कुनबे और गिरोह के संख्याबल साथ

मुझे याद आता है केरल
जहाँ लगभग प्रतिवर्ष घात लगाए ये  दोनो के दोनो खेलते हैं  एक दुसरे के खून की होली
जिनके खत्म होने के आसार लगभग नही है
भगवा धारी भी कही कम नही हैं



मैं अक्सर देखता हूं  उन बुढ्ढे बेहद पढे लिखे वामपंथियो को जिनके पाँव कब्र मे लटके है और वे वमन कर रहे है -विष लगातार फ़ैला रहे हैं रायता

कभी कविता कभी कहानी कभी लेखकीय कसीदाकारी और अपनी खास टीप कर कर के

अभिव्यक्ति के अधिकार का मतलब क्या यही होता है ?

मुझे शक होता है अब इनकी नस्लों पर जो महान कवि लेखक आलोचक और पता नही क्या-क्या है
और इनमें  विरोधाभास भी ऎसा कि  ये अपने नाम का महत्वपूर्ण  ’ हिन्दु ’ शब्द तक भी आज तक नही बदल पाए
मुझे शक होता है इनसे कोई देश कैसे बदल सकता है

जिन्हे बरतना चाहिये था एहतियात
जिन्हे रखना चाहिये था खयाल वर्तमान व आनेवाली नयी पीढियों के भविष्य का
जिन्हे याद रखना चाहिये था अपने अधमरे /गरीब/ भिखारी/ विकाशील/ दीमक लगे लंगडे देश का

और बोलनी चाहिये थी एक सुलझे हुए आदमी की भाषा
जहाँ वे बोल रहे है लगातार जहर उगलने की भाषा

और जिनपर फ़ख्र होना चाहिये था हमें  उन्हे देख कर अब आती है घिन

कट्टर होना देश हित में बुरा है
गुण और दोष सभी मे होते है जरूरत है पशुता / कट्टरता से बाहर निकलने की
क्या इतनी भी समझ नही है इन्हें
फ़िर किस बात के सिद्धांतवादी है ।
----------------------------------------अनावृत

Wednesday 17 September 2014

कविता और अकेलापन ---एक डायरी

कविता और अकेलापन ---एक डायरी
**************
जितनी साफ़गोई से
वह लोकधर्मी मंचीय कवि अपनी बात कह गया

मैं समझ सकता हूं

ठीक उतनी ही सफ़ाई से चौरसियां जी भी फ़ेर लेते है
चिकने मगहियां पान पर अपने हाथ

पाँच का पान पंन्द्रह में खिला कर

मुदा बात कुछ ऎसी तो नही लगती कि
कविता में आत्मा आत्मा से बात करती है

अगर ऎसा है तो यह दुसरी आत्मा   है कौन ?
क्या एक आदमी की दो आत्माएं हो सकती है ?
नही न !
तब फ़िर वह किससे बाते करता है
यह दुसरी आत्मा  है किसकी ?

पान के सफ़ेद चूने की तरह साफ़ है कि
यह दुसरी आत्मा पाठक की है

तो इसका सीधा मतलब यह कि कवि अपनी आत्मा के अलावा
पाठकों की आत्मा के लिये भी लिखता है

पाठकों की उपस्थिति के आभास में
प्रतीक बिम्ब भाषिक मजबूती चित्र जोडने और
कविता को छपने लायक बनाए रखने का ध्यान भी रखता है

उससें प्राप्त होने वाले धन  या नही तो  किसी न किसी प्रशंसा यश की
कोई न कोई प्रत्याशा सुक्ष्म अथवा सुक्ष्मतर रूप मे ही सही
उसके साथ जुडी तो अवश्य ही रहती होगी
ऎसे में
फ़िर कविता गढते समय कवि अंतत: अकेला कैसे हुआ ?

मुदा अपनी पीडा या अपने अकेलेपन के लिये तो वह डायरी--वायरी भी तो लिख सकता है
अभिव्यक्ति अव्यक्त को तृप्ति ही तो चाहिये न !
और क्या ,...?

इतना तो डायरी से भी तो चल सकता है
आखिर ऎसी क्या जरूरत है उसे इतने छंद अलंकार काट छाट और बनियाँदम नाप तौल करने की  ?
प्रकाशकों के दरवाजों पर दौड-दौड कर दस्तक देने की

अब मेरे होंठ लाल हो चुके है पान की पीक से मुंह भर आया है
मैं उस जगह की तलाश मे हुं
जहाँ थूक कर हो सकूं--हल्का ।
----------------------------------शिव शम्भु शर्मा ।

Friday 12 September 2014


वह सब
**********
जान बूझ कर
मैनें अंधेरें का रास्ता चुना

उल्लुओं चमगादडों से उनका पता पूछा
उनके घर देखे
उनके साथ जिया उनकी जिन्दगी
उनके जीने का अंदाज देखा

सच कहुं तो
रौशनी मे वह सब दिखायी नही देता
जो दीखता है
अंधेरें मे ।
--------------------शश ।


Thursday 11 September 2014

कट्टर

कट्टर
**********************
कट्टर किसी भी धर्म का हो
संप्रदाय का हो
पार्टी का हो
किसी कुनबें या गिरोह का हो
या साहित्यिक विचार-धारा के किसी संगठन का हो

कट्टर सिर्फ़ और सिर्फ़ कट्टर होता है
और कुछ नही

जो कुछ वह समझता है
बस वही सत्य  है

बैठ जाता है अपने सत्य पर
ढीठ--परुआ बैल की तरह
राह में
खेत में

अब उसे कितना भी मारों
पीटों
या काट ही दो उसे
वह उठेगा नही

बेहतर है उससे बचना
हमेशा के लिये
हर हाल में,. ।
------------------------श श शर्मा ।

Wednesday 10 September 2014

ईश्वर

नदियां सिर्फ़ नदियां है
बहती हुई कई सदियां है

इन्हें किसी की भी सभ्यता से कोई वास्ता नही होता
इन्होनें कभी नही बुलाया  आदमी को कि ,.. आ मेरे पास
और बसाले अपनी सभ्यता

ये तो खुदगर्ज आदमी हैं
जिसने  उन्हें पूजकर
ईश्वर तक बनाया
इसके किनारे अपना घर बसाया

और जब नदी उफ़नकर लीलने लगती है --आदमी
तब इतना शोर क्यों
इतना चित्कार कैसा ?

सदियों से इन्ही के भरोसे क्यो रहे ?
इन्हें पूजने के बजाय

मकडजालों में
तुम बाँध भी तो सकते थे इसके किनारे
लोहें और कंक्रीट क्या नही थे
तुम्हारे पास ?
-----------------श श शर्मा ।



Sunday 12 January 2014

इसमे बुरा क्या है ?

इन दिनो
हवा कुछ ऎसी चली है
कि लोगो को पहचान पाना
मुश्किल नही है

ऎसे मे कोई मुझे भी पहचान ले
तो इसमे बुरा क्या है ?
----------------शिव शम्भु शर्मा ।

Friday 10 January 2014

किसी के खूंटें से

खुटों से बंधे लोग
और
खुंटो से बंधे मवेशियो के बीच
जब कोई अंतर नही रह जाता

तब मायुस होकर देखने लगता हूं आसमान
जिसके परछाई का नीला रंग सोख कर
चलता रहता है समुद्र
अनवरत

यह देख कर थोडा सुकुन मिल जाता है
थोडा सुस्ता लेता हूं
अंजुरी भर समुद्र का खारा जल
देखकर थोडा जी लेता हूं
जिसका रंग मेरे आंसुओं से मेल खाता है

और फ़िर गुम हो जाता हूं
हजारो चेहरों की भीड में पैठकर
खोजता रहता हुं
कुछ नायाब सोच के चेहरें

वैसी आँखें
जो जल और आंसुओं के बीच के रंग का समझते हो
अंतर
और जो किसी ऎठे हुए पगहें के सहारे बंधे नही हो
किसी के खूंटें से ।
---------------------शिव शम्भु शर्मा ।