स्वागत है आपका ।

Tuesday 30 April 2013

गड्ढा


कोई फ़रक नही पडता आपके हुजुम में
शामिल रहने या नही रहने से
मुझको

आपको तो मतलब है बस
केवल शहद से
भला मक्खियां आप क्यो निगले ?

आपकी नजरों मे  जो बात नही  है
वह भी यूं ही तो नही है
हमने ही आज तक वह आपको नही बताया है
लिहाज किया है हमने

केवल गड्ढा ही दीखता है आपको
और
गड्ढें के पास ही पडी
खोदी गयी मिट्टी की वह ढेरी
नही दीखती

जिसे अंधे भी ठोकरों से  देख लेते है
अब आपको वह न दिखे तो मैं भला क्या करूं ?
-----------शिव शम्भु शर्मा

मजदूर दिवस



*************
मेरे इलाके के दहाडी मजदूरो एक हो जाओं
आज तुम्हारा दिन है
मंच सज चुका है माइक वाला तैयार है

आज हमारा कामरेड आएगा
साथ में
कवि भाषनियां विद्वान समाजसेवी आएगा

आओ आज नारे लगाने है
ताली बजाना है
ईट से ईट बजा देना है
गद्दारो ठेकेदारो मालिको को दहला देना है

आओं
आज की मजदुरी के बदले
बुंदियां खाकर रस चाटकर  ड्राम का पानी पीना है
मगर इन पूंजी- पतियों को हिला देना है

नई सडक बनानी है नेशनल हाईवे का ठेकेदार आएगा
नई मशीने लाएगा पक्की सडक बनाएगा
काम लंबा चलेगा रोज चलेगा

आज जो नही आएगा उसका नाम रजिस्टर में नही चढेगा
और वह काम नही पाएगा
फ़िर उसे डेरी में मवेशियों का गोबर ढोना पडेगा
चारा काटना पडेगा
वह भी आधी मजदूरी में
सोच लो फ़ैसला कर लो
बाद में हमको दोष मत देना

देखो फ़िर से कहता हूं  कान खोल कर सुन लो

आज कामरेड आएगा
लालसलाम आएगा
वातानुकुलित बी एम डब्ल्यु कार से
उसके आते ही
तुम्हे फ़ूल छिडकना है माला पहनाना है

आओ आज सबको दिखा देना है
दुनियां के मजदूर एक है ।
--------------------श्श्श।

Monday 29 April 2013

शिखण्डी कौन है ?


शिखण्डी कौन है ?
************************
डाक्टर तक पढा लिखा प्रोफ़ेसर
एक जमाने का गवर्नर
इतना सीधा साधा कि पूछो मत
ईमानदार
मासूम सा चेहरा
और केवल एक औरत का वफ़ादार ?

क्या वह वाकई शिखण्डी है ?
या यह शिक्षा प्रणाली शिखण्डी है
या हम
या फ़िर यह पुरा का पुरा देश
जो कायरों काहिलों जाहिलों लम्पटों
चरवाहो उपाधियों पदवियों  व्याधियों से
से अटा पडा है

जो आज तक
एक भाषा
एक देश
एक धर्म
एक ईश्वर
एक पूर्ण बहुमत की सरकार तक नही बना सकता

गठबंधन की दानवी लूट
सरेआम बलात्कार के बाद
मासूमो तक को जो नही बख्शते
अब चीन की बात कर रहे है

कुछ देशी लोग जो विदेशो में डेरा जमाए हुए है
हिन्दी साहित्य से जुडे है
उन्हें शर्म  आ रही है
जबकि मुझे घिन

असमंजस में हूं
सोचता हूं
कि वाकई आखिरकर शिखण्डी कौन है ?
और है तो क्यो है ?
------------------शिव शम्भु शर्मा ।




Sunday 28 April 2013

बम्बू


उन्होनें कहा --
तुम बिम्ब विधान नही समझतें
साहित्य समझना तुम्हारे जैसो के वश का नही है

मैने कहा---
तुम भी ,.जो जैसा है उसे वैसा नही समझते
सच्चाई समझना तुम्हारे जैसो के वश का भी नही है

हम दोनो में फ़र्क बस इतना था

मैं बिम्ब नही समझता
और वह बम्बू नही,.....।
---------------------शिव शम्भु शर्मा ।

Saturday 27 April 2013

विकृति




*****************
सामाजिक मानसिक विकृति कोई
एक दिन में  नही आती
यह कोई तुफ़ान या जलजला नही है

इसे जन्म देता हैं हमारा ही समाज

विश्व के सबसे बडॆ लोकतंत्र बने रहने के पाखंड में अंधे
अपनी कायरता का भोजन और दब्बूपन का पानी
खिला-पिलाकर पालता है पोशता है बडा करता है

बना डालता है अपराधी
और  फ़ैला देता है छूत का एक लाईलाज कोढ

फ़िर यही समाज करने लगता है  हाहाकार चित्कार
जब होने लगता है बलात्कार दर बलात्कार

यह तब भी कोई ठोस कदम नही उठाता
जब पराकाष्ठा की हदें भी कर जाती हैं पार

मुट्ठी भर लोग आवाजे उठाते है आज
बाकी सब बस तमाशेबाज

गूंगें बोलते है अंधे लिखते है
और कुछ बहरें इसे सुनते है

ठीक वैसे ही जैसे
सुनी जाती  है
नक्कार खानें में तूती की आवाज ।
-------------------------शिव शम्भु शर्मा




*****************
सामाजिक मानसिक विकृति कोई
एक दिन में  नही आती
यह कोई तुफ़ान या जलजला नही है

इसे जन्म देता हैं हमारा ही समाज

विश्व के सबसे बडॆ लोकतंत्र बने रहने के पाखंड में अंधे
अपनी कायरता का भोजन और दब्बूपन का पानी
खिला-पिलाकर पालता है पोशता है बडा करता है

बना डालता है अपराधी
और  फ़ैला देता है छूत का एक लाईलाज कोढ

फ़िर यही समाज करने लगता है  हाहाकार चित्कार
जब होने लगता है बलात्कार दर बलात्कार

यह तब भी कोई ठोस कदम नही उठाता
जब पराकाष्ठा की हदें भी कर जाती हैं पार

मुट्ठी भर लोग आवाजे उठाते है आज
बाकी सब बस तमाशेबाज

गूंगें बोलते है अंधे लिखते है
और कुछ बहरें इसे सुनते है

ठीक वैसे ही जैसे
सुनी जाती  है
नक्कार खानें में तूती की आवाज ।
-------------------------शिव शम्भु शर्मा



Friday 26 April 2013

शामियानें


गेहुं कटने के बाद का खेत
और पुरा का पुरा सरेह
डरावना सा लगने लगता है
सुनसान सा सिवान
तब कितना खुरदरा दीखता है

गांव से थोडी ही दूर
उदास से इन्ही खेतों में
लगते है तब  शामियानें
आकर टिकती है दूर से कोई बारात
गाजे बाजे के रस्मों रिवाजों के साथ

और विदा कराकर ले जाती है अपने साथ
अपनी सभ्यता का विस्तार

तब खुरदरा खेत और निचाट सा हो जाता है
देखा नही जाता इसे भी उन आसुओं की धार
हो जाता है यह भी तार तार

कोई नही देख पाता इसे
फ़ट जाता है यह भी उतने ही दुख से

और करता है फ़िर वही इंतजार हर साल की तरह
आषाढ की उन  चहल कदमियों  का
जिसमे  बोये जाते है फ़िर से नये बीज
एक बार फ़िर से कटने के लिये

ऎसा होता रहता है बार बार
जिस पर खेतों  का कोई अपना वश नही होता
गांव की बेटियों की तरह ।
----------------शिव शम्भु शर्मा ।

Thursday 25 April 2013

हम ही क्यो आंसु बहाए


बेगानी शादियों में दीवानें
इस देश में अबदुल्लें बहुत है

रोज चींखती है  यहां औरतें
इस देश में छल्लें बहुत हैं

रोज लुटती है यहां अस्मतें
इस देश में मुछल्लें बहुत हैं

रोज बिकती हैं  यहां बेबशें
इस देश में दल्लें बहुत हैं

हर साल घुस आता है चीन
इस देश में गुरिल्लें बहुत है

मंत्रियों को फ़ुर्सत कहां कि देखे
इस देश में लालुलल्लें बहुत हैं

रोज मरतें हैं यहां कई भूखें
इस देश में (अनाजों के) गल्लें बहुत हैं

लिखते रहें है लिखनेवाले लिखें
इस देश में चोरों के वल्ले-वल्ले बहुत है

खाने को रोटी नही न तन पर कपडें
इस देश में क्रिकेट कें निठल्ले बहुत है

हम ही क्यो आंसु बहाए और रोए

यारो चलो हम भी मस्त रहे
इस देश में रसगुल्लें बहुत है ।
-----------------------शिव शम्भु शर्मा ।



Tuesday 23 April 2013

झूठ


झूठ रात-रात भर सिरहानें बैठकर
झूठे-झूठे सपने दिखाता रहता है

और सुबह जब  खुलती है पलकें
तभी आ धमकता है फ़िर

दिन भर साथ-साथ बोलने के लिये
जब तक कि पलकें बंद न हो जाए
पुरी तरह

मरने के बाद भी
पीछा नही छोडता

सच यही है
यह समय कुछ ऎसा ही है
कुछ किया नही जा सकता जिसका

समय जो ठहरा
बदला नही जा सकता
इसे
यह रहेगा
और बढ-चढ कर ।
-------------------शिव शम्भु शर्मा ।


Saturday 20 April 2013

मुंह लटकाए


सडक पर एक भीड उमडी चली आ रही है
नहर में फ़ाटक का पानी किसी ने छोडा हो जैसे

शोर तेज होती आ रही है
अब साफ़- साफ़ सुनाई दे रहा है

ठेले पर लदा माईक साथ-साथ  चलता है
झंडों के डंडे संभालें नौजवान
बैनरों में तैरते शब्द
सैकडों मुंहों के विविरों में लपलपाती जीभ
उगल रहे है
गर्म भाप बने शब्द उड जाते हैं

काफ़िला गुजर गया
एक शोर बिफ़र गया
एक जरूरी दस्तुर था जो निभा दिया गया
अब सब कुछ सामान्य है थिर है
जैसे कुछ हुआ ही नही है

नहर में कई बार इसी तरह छोडा जाता है पानी
अभ्यस्त  जानते है इस पानी की धार की पहुंच

कमजोरों गरीबों के सूखे परती खेत
धोखेबाज बादलों की आस में
हमेशा की तरह खडे  हैं
मुंह लटकाए ।
-----------------------शिव शम्भु शर्मा ।


Monday 15 April 2013

बेवकुफ़ चुप रहो


न जाने क्यो मन कसैला है इन दिनों
जब भी कुछ लिखना चाहता हूं

कोई चुपके से आकर कह जाता है कानों में
--बेवकुफ़ चुप रहो
यहां कुछ नही होगा
जो तुम चाहते हो

सिवा
लफ़्फ़ाजियों
बतौलाबाजियों
के
-----------------शिव शम्भु शर्मा ।

भूख


गांव बडा है या कि देश ?
गांव बडा होता
तो सरहद पर कोई नही होता

पूछो उन भिखारियो से कि भूख बडी है या फ़िर देश ?
भूख बडी है
देश बडा होता
तो देश में कोई भिखारी नही होता ।
-------------------शिव शम्भु शर्मा ।

Wednesday 10 April 2013

जबरन


कभी लोग मेरा मतलब नही समझते
कभी मैं लोगों का

अक्सर नियति के खेल में
मात खाना मेरी किस्मत है

जिसे जबरन मैनें ही  गढा है
जिसमें केवल अपने मतलब को बेमतलब
देखना चाहता हूं
मैं ।
-----------------------शिव शम्भु शर्मा ।

Tuesday 9 April 2013

कविता


कविता  अच्छी लिखने का मतलब
यह कतई नही होता
कि कविता वाकई अच्छी है

कविता अच्छी होने का मतलब
भी यह कतई नही होता कि
कवि वाकई अच्छा है

अब मानसर के कमल के फ़ूल
माली चहबच्चों में भी  खिलानें लगे है

बहुत से भिखारी करोडपति भी होते है
बहुत से करोडपति भिखारी भी ,..

सैकडों भूलभूलैयों  के कमरों से बने महल का मालिक
एक अकेला आदमी भी है

कविता भी इससे नही है
अभिन्न ।
---------------------शिव शम्भु शर्मा ।

Monday 8 April 2013

मित्रो,.. शीर्षक आप ही सोच ले



*********************************
नदी हमारे सामने  बह रही है
तट पर तुम भी हो
तट पर मैं भी हूं

जब मैं तुम्हें देख रहा होता हूं
तब तुम मुझे नही देखती
कुछ और देख रही होती हो

जब तुम मुझे देख रही होती हो
तब मैं भी कुछ और देख रहा होता हूं

इस तरह देखते हुए भी हम वह नही देख पाते
जो हम दोनो को यह बहती नदी देख रही होती है

हमारी नजरें जब मिलती है
तब तक नदी बह चुकी होती है

हम दोनो अपनी-अपनी राह  लौटने लग जाते हैं
बगैर कुछ बोले बतियाए

हमें लौटता देख किनारे का एक पेड सहसा  मुस्कुरा उठता है
उसकी जडें जो पानी में हैं
वह जानता है नदी अब भी बह रही हैं
रेत के नीचे

हमारी दृष्टि से परे
हमारी सोच से परे ।
-----------------------------शिव शम्भु शर्मा ।

Sunday 7 April 2013

कसूर


झूठ अब पहचान में नही आता
इतनी चमक है उसमें
इतना बारीक और धुला हुआ सफ़ेद है
कि यकीन ही नही होता
और साथ-साथ चलने लगता है
हमारे संग-संग

एक लंबा समय लगता है कलई खुलने में
और एक दिन जब खुलता है
तब खलता है
खीझ जाता हूं बहुत स्वयं से ही
कसूर तो अपना ही था न !
------------------शिव शम्भु शर्मा ।

Saturday 6 April 2013

ईश्वर


एक
*********
मेरे झोपडे में  धूप नही चढती
चांद के छत पर उतरनें का सवाल ही नही उठता

बगल में एक बजबजाता नाला बहता है
जो शहर और स्लम के बीच की सीमा रेखा बांटता है
जिसका नक्शा थानें में टंगा है
फ़र्श सर्द है
रात को  बंसहट खाट पर  एक मुर्दा लेटता है
जिसके मजदूरी दुख दर्द और प्रेम का अर्थ छोडिये
जिन्दगी और मौत का भी कोई लालपीला कार्ड नही होता

दो
********
भिखारियों के इस मुहल्लें में
अल्सुबह पुरा कुनबा कई मंदिरों  की सीढियां अगोरनें चले जाते है
जैसे मजूर जाते है सडक पर गिट्टियां जमाने कोलतार बिछाने
और शाम को अपने साथ ईश्वर लिये लौटते है और उसे आग में झोक कर
जी जाते है फ़िर अगली सुबह के लिये

तीन
**********
नुक्कड पर एक पंडित बैठता है पिंजरे में तोता लिये
जब कोई जजमान फ़ंसता है तब पंडित का चेहरा किलक जाता है
तोते का चमक जाता है
और कथा--कला सुनने   मैं वहां ठमक जाता हूं
पंडित  उसे डराकर सपने और टोटकें का ईश्वर बेचता  है
और जजमान का ईश्वर बडे सलीके से साफ़ कर देता है
और इस तरह एक कहानी पढनें की मेरी साध पुरी हो जाती है

चार
**************
ऎसा नही है कि इस मुहल्ले में कविता नही आती
आती है अपने सर पर  बासी साग भाजी तरकारियों की टोकरी लिये
शाम के बखत
ये फ़टेहाल लोग तरकारियों से ज्यादा उस कविता को देखते है
जो औने पौने दाम में उनकी रोटियां नमकीन कर जाती है
पाँच
********
मेरे झोपडॆ के सामने के एक झोपडे में एक बुढियां भिखारन
गोल कटी हुई खाट पर रोज अपना अंतिम दिन गिनती है
उसके पास मैं कुछ देर के लिये जाता हूं
वह मुझे बुलाकर बांचती है
हर रोज एक उपन्यास की धारवाहिक किस्त
छ:
***********
सुना है आज शहर के
पक्के मकानों के महल वाले  एक हाँल में बडे कवियों का सम्मेलन होने वाला है
इच्छा तो है कि वहाँ जाऊं
पर खाना खुद न बनाउं तो इतने पैसे कहाँ है कि नुक्कड पर खाऊं
और यह निगोडी देह जो टूट रही है दिन भर की जानलेवा मजूरी के दर्द से
अगर मै रात में सोऊं नही तो कल काम पर कैसे जाऊंगा
मेरा ईश्वर वह ठेकेदार भगा देगा तो क्या खाऊंगा
रहने दो भाई यह सब बडे लोगो की चीज है
हम जैसों के लिये नही ।
-------------------------------------शिव शम्भु शर्मा ।

Friday 5 April 2013

भूख


समुद्र तट पर नंगे पांव चल रहा हूं
मेरे चप्पल और कमीज मुझसे भूखें नंगों ने छीन लिये है
धूप तेज है मेरे पांव जल रहे है
उससे तेज भूख से मेरा पेट जल रहा है

सैलानियों की भारी उमडी भीड है इस धूप में भी
लोग-बाग अपने-अपने परिवारों के साथ
लहरों का मज़ा लूट रहे है
कहकहों का अट्टहास गूंज रहा है
तश्वीर वाले कैमरा लिये घूम रहे है
रेहडियों की दुकानों वाले
खोमचें वाले हांके लगा रहे है
खासा जमघट है यहां
सबके तल में एक भूख है

रेत की कलाकृतियां बना रखा है एक गरीब कलाकार ने
अपनी भूख के लिये यही दुनियां है उसके लिये यहां की

रेत की तरह यहां बिखरी चमकती है असंख्य कविताएं
इनमें  कोई भी ऎसी कविता नही है जिससे मिट सके मेरी भूख

मछुआरे भी अभी तक नही लौटे शायद निगल चुका है उन्हे परसों का उग्र समुद्र
अब और चला  जाता नही इस रेत पर
नही किया जाता और  इंतजार उन मछुवारों का मछलियों का
जिनकी ढुलाई की एवज में मेरी भूख मिटती है

इससे पहले कि कोई बडी सी लहर मुझे निगल ले हमेशा हमेशा के लिये
मुझे कही दूर निकल जाना चाहिए
मुझे तलाश है एक ऎसी दुनियां की जहां भूख नही होती
इंतजार नही होता और कोई भुखा नही होता ।
------------------शिव शम्भु शर्मा ।

Thursday 4 April 2013

सच


सच बडा घिनौना है वीभत्स है

धुली हुई सफ़ेद चादर मे लिपटे
देहपिंड में रंग बिरंगे फ़ूलों का आवरण

घी चंदन के तेल का प्रलेपन
लोहबान जलती अगरबत्तियां

मालाओं की ढेर सी श्रद्धांजलियां
भी महका नही पाती तब  भीतर तक मुझको

जैसे सडती हुई लाश के नथुनों में ढुंसा होता है
रूई के फ़ाहें में लिपटा महकता मजमुआं का सेंट

जल रही चिता से उठती एक चिराईन सी गमक
से जब तिलमिला रहा होता हूं

उबकाई सी आने लगती  है तभी
फ़टता है सर एक बडी आवाज के साथ
पृथ्वी के प्रस्फ़ुटन की याद दिलाता

और विलीन हो जाता है भाप बनकर हवाओं में
राख बन कर फ़िजाओं में
कभी नही लौटने के लिये

या फ़िर छिप जाता है सच
किसी कब्र के नीचे किसी सड चुकी लाश के उपर मानो
संसार का सबसे सुन्दर संगेमरमर का मकबरा हो जैसे
---------------------------शिव शम्भु शर्मा ।




Wednesday 3 April 2013

दायरा


यूं तो कविता की न कोई सीमा  है
और न कोई बंधा हुआ दायरा
यह कवि कविता की निजी धारणा है बस

सच में ऎसा नही है
कविता की भी एक सीमा है

इस सीमा से बाहर असंख्य लोग  है
एक सुनबहरा देश है
गरीब गुरबा
बैसाखियों के सहारे लंगडाकर चलते
आम जन लोग
और निम्न लोग
दबें कुचलें कुम्लायें
मैले फ़टॆहाल मलीन

और इनसे उलट

अपने सुखो मे तल्लीन
अपनी ही साधना मे लीन
जिन तक
कविता नही पहुंचती है ।
----------------------------शिव शम्भु शर्मा ।