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Sunday 2 June 2013

इन्हें बुरा ना कहो


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इन्ही दिनों कटे होते  है खेत
इन्ही दिनों चुभती है खेतो की खुटियाँ
इन्ही दिनों बजते हैं बाजें तासे शहनाईयाँ
इन्ही दिनों विदा होती है गाँवों की बेटियाँ

इन्ही दिनों नंगा होता है पर्वत
इन्ही दिनों पिघलती है बर्फ़
नदियों में बचा रहता है पानी

इन्ही दिनों धरती और सूरज होते है करीब
इन्ही दिनों तपता है समंदर
सूखते है पोखर झील ताल तलैया
और कुओं की तलहटी में बहुत कम रह जाता है पानी

ये पसीने के दिन बुरे नही है
इन आमों के दिनो को बुरा ना कहो

इन्ही दिनों बनते है बादल
इन्ही दिनों की बदौलत धरती होती है हरी--भरी
इन्ही दिनों की एवज में झूमते हैं किसान
गाते हैं मजूर
मंडियों में आते है अनाज
और गरीबों के बच्चें जाते है स्कुल

इन्हें बुरा ना कहो
इन्ही दिनो जगती है नई उम्मीदे
एक और बरस भरपेट जी लेने की ।
---------------शिव शम्भु शर्मा ।

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