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Tuesday 4 December 2012

ठंड


दस्तक देती ठंड
अब पसर चुकी है
सडक पर
देर तक टहलने वाले लोग
आज नजर नही आए
धरों में दुबक गए हो शायद

खामोश सन्नाटा और अकेलापन
फ़िर आ धमके मेरे पास
न जाने कैसा कब का नाता है
इनका मुझसे
चिर सखा रहे हो मेरे जैसे

कितना पास लौट आता हूं मैं
अपनों के पास आकर अकेले

नही समझता पाता  आज भी
कौन सी अनजानी इच्छा के अधीन
कौन सी भूख के वशीभूत

इस अंतहीन सडक पर चलता हुआ
जैसे कोई बिछडा करता हो अपनों की तलाश

अचानक
एक विदेशी कार अपनी तेज रौशनी से चौधियां कर
धकियातें फ़र्राटें भरती निकल गई
देह को एक देह से ढंके  वह कारवाला
शायद इस शहर में आदमी कहा जाता हैं

बचते बचाते आंखे मलता
मैं रह गया बस उसे देखता

----" बाबूजी कहां जाना है " ?
------" यह कौन है " ?
सूने से अंधेरें में
---इस कडकडाती ठंड में भी ?
---------मेरी ही बिरादरी का वह कोई रिक्शेवाला था
भूखा अधनंगा अदना सा एक दोपाया
जो गिना नही जाता कभी आदमी में
और
जिसकी पेट की आग के समक्ष
नतमस्तक  हो जाती हैं ठंड

मेरी खुली नंगी आंखें
जिन्हें ढँक नही पाया मैं  कभी
किसी विदेशी चश्में से
अब
न जाने  कौन सी परिभाषा का अर्थ टटोलती है ?
और
क्यो रह जाती हैं अकेले ?
बिल्कुल बेपरवाह इस
कडकडाती ठंड से भी ...।
---------श्श

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