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मुझे संघ और वाम पंथियों में कोई खास फ़र्क नजर नही आता ।
ये दोनो के दोनो एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं
मेरे लिए
जितने मक्कार उतने ही खूंखार भी
इसलिये नही कि मैं इन दोनो को पढा नही
जाना समझा या परखा नही
जानता हूं इन दोनो को इनकी बेहतरीन खूबियो के साथ
इनके फ़लते फ़ूलते कुनबे और गिरोह के संख्याबल साथ
मुझे याद आता है केरल
जहाँ लगभग प्रतिवर्ष घात लगाए ये दोनो के दोनो खेलते हैं एक दुसरे के खून की होली
जिनके खत्म होने के आसार लगभग नही है
भगवा धारी भी कही कम नही हैं
मैं अक्सर देखता हूं उन बुढ्ढे बेहद पढे लिखे वामपंथियो को जिनके पाँव कब्र मे लटके है और वे वमन कर रहे है -विष लगातार फ़ैला रहे हैं रायता
कभी कविता कभी कहानी कभी लेखकीय कसीदाकारी और अपनी खास टीप कर कर के
अभिव्यक्ति के अधिकार का मतलब क्या यही होता है ?
मुझे शक होता है अब इनकी नस्लों पर जो महान कवि लेखक आलोचक और पता नही क्या-क्या है
और इनमें विरोधाभास भी ऎसा कि ये अपने नाम का महत्वपूर्ण ’ हिन्दु ’ शब्द तक भी आज तक नही बदल पाए
मुझे शक होता है इनसे कोई देश कैसे बदल सकता है
जिन्हे बरतना चाहिये था एहतियात
जिन्हे रखना चाहिये था खयाल वर्तमान व आनेवाली नयी पीढियों के भविष्य का
जिन्हे याद रखना चाहिये था अपने अधमरे /गरीब/ भिखारी/ विकाशील/ दीमक लगे लंगडे देश का
और बोलनी चाहिये थी एक सुलझे हुए आदमी की भाषा
जहाँ वे बोल रहे है लगातार जहर उगलने की भाषा
और जिनपर फ़ख्र होना चाहिये था हमें उन्हे देख कर अब आती है घिन
कट्टर होना देश हित में बुरा है
गुण और दोष सभी मे होते है जरूरत है पशुता / कट्टरता से बाहर निकलने की
क्या इतनी भी समझ नही है इन्हें
फ़िर किस बात के सिद्धांतवादी है ।
----------------------------------------अनावृत
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