आज यह फ़ेसबुक पर यह पढने को मिला ,..
वासना रहित निस्वार्थ प्रेम श्री कृष्ण (ईश्वर) है
आराधना शब्द का "राध्य" प्रतिरूप स्वयं राधा है ।
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आखिर प्रेम में ऎसा क्या छिपा हुआ है
जो यह ईश्वर है ?
फ़िर ऎसा क्यों होता है कि
पुरूष स्त्री से
स्त्री पुरूष से ही केवल क्यो प्रेम किया करते है
क्या प्रेम करने के लिये और कोई दुसरा प्राणी नही मिलता ?
और फ़िर प्रेम विवाह भी करते है ??
प्रेम अगर वासना रहित है
निस्वार्थ है
तो ऎसा क्यो नही होता कि
पुरूष अथवा स्त्री एक दुसरे से प्रेम / विवाह नही करके
किसी पेड या किसी लाजवंती पौधे से प्रेम करते हो ?
और उनसे ही विवाह भी करते हो ?
क्या यह सही नही है कि प्रेम भी एक वासना है ?
(जबकि वासना एक व्यापक शब्द है )
वासना मे स्वार्थ है
स्वार्थ में आनंद है
और आनंद में तृप्ति है ??
और आनंदपूर्ण तृप्ति ही प्रेम की आधारशिला है
क्या यह सही नही है कि यही प्रेम की बुनियाद है
और इसी बुनियाद पर खडा है विश्व और ईश्वर ??
अगर यह बुनियाद सही नही हो तो फ़िर यह सृष्टि ही नही चलेगी
फ़िर बचेगा क्या ?
फ़िर प्रेम क्या ?
नफ़रत क्या ?
श्री कृष्ण क्या ?
और राधा क्या ?
फ़िर कुछ भी तो बचेगा ही नही मेरे बंधुओं ??
हो सकता है मै गलत कहता होऊ
फ़िर आप बताए कि सही क्या है ?
-------------------------------शिव शम्भु शर्मा ॥
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