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एक बरस से
हर रोज दो चार घंटे
एक रेगिस्तान की रेत में गद्ढा खोद रहा हूं
इस उम्मीद और आस के साथ
कि इस रेत के अंदर आखिर क्या है ?
पहले कभी यहां समुद्र था
तो आखिर कहां चला गया इसका इसका पानी ?
कही तेल तो नही बन गया ?
और छिप तो नही गया सदा के लिये
किसी बैसाल्ट की चट्टान की परत के नीचे ?
मैदानी इलाकों में इतनी मेहनत से आ गया होता अब तक पानी
यह जानता हूं यहां तो सभी खोद लेगे
पर इस मरे रेगिस्तान का क्या करूं?
जो रहस्य बना चिढाता रहता है मुझे
मेरे लिये अभी भी यह एक चुनौती है
अभी तक अपने कद से ज्यादा नही खोद पाया हूं
हर दुसरे दिन यह गड्ढा मुझे भरा मिलता है
रेत की निगोडी आंधियां मुझे हरा देना चाहती है
मेरे किये पर फ़ेर देती है पानी
मुझे जुटाने होगे वैसे उपकरण जो खोद सके एक अदद गद्ढा
छेद सके कठोर चट्टानो को
और यहां कोई है भी नही मेरे सिवा
जिसे पुकार कर बुला सकु
और पता लगा सकु उस स्रोत का
मेरे भीतर के उस कौतुहल का
जिज्ञासा का
मैदानो में खोदना कठिन है और प्राप्य आसान
इस रेगिस्तान में खोदना आसान है और प्राप्य कठिन
मै अकेला ही सही
पर मै हारा नही हूं अब तक
खोजकर ही रहूंगा
सहारा कालाहारी जैसे इस मरू देश के थार का रहस्य
लिखुंगा और
खुद पढुंगा
और करूगा हस्तांक्षर
एक दिन यही
इसी जगह ॥
--------------------शिव शम्भु शर्मा ।
Bahut Sundar prayaas hai Shiv ji , Yun hi likhte rahiye
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